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कुंडलिनी क्यों जागृत होती है?

कुंडलिनी क्यों जागृत होती है?? इसकी आवश्यकता क्यों है?? आप की हुई थी तब आप मे और दुसरो मे क्या अंतर भान हुआ?? कुछ प्रकाश डालें।

WOM 

किसी का भी अनुभव अन्य के लिए सिर्फ कहानी है जब तक वो स्वयं का अनुभव न बने, सत्य व अनुभव को शब्द नही दिये जा सकते। शब्द सिर्फ भ्रम पैदा करते हैं।

मैं जो बोल यह हूँ वो सत्य ही है कहानी नही वो कोई कैसे तय करेगा ? 

मेरी कुण्डलिनी जागृत हुई या नही ये प्रश्न भी अनुत्तरित ही रहेगा, ऐसा कोई दावा नही कर सकता, क्योंकि उस दावे को अन्य व्यक्ति प्रामाणिक या अप्रामाणिक कैसे बतायेगा? क्या उसके पास कोई यंत्र या पैरामीटर है? यदि है तो मैं नाप देने को तैयार हूं।

मेरी क्षुद्र दृष्टि में इसकी जागृति का अर्थ है उस महामार्ग पर पहुच जाना जो आपको योग मार्ग से आत्मा, सत्य व ब्रम्ह से सामरस्य रूपी मंज़िल तक  पहुँचायेगा। 

यहां से यात्रा शुरू होती है। ये स्टार्टिंग पॉइंट है। 

जागृति से पहले भी साधना होती है बाद में भी। अंतर इतना है पहले अभिमान सहित साधना यानी मैं कर रहा हूँ। जागृति के बाद अभिमान रहित। क्योंकि बाद की साधना में आपका कोई कार्य नही रहता। साधना करने और कराने वाला कोई अन्य होता है। तो वहां मैं कर रहा हूँ इसकी उद्घोषणा ही नही होती।

आप बस मूक दर्शक बन जाते हैं। तब आपका जीवन भी आपके हाथ से छूटने लगता है। 

मैं का कंट्रोल हटने लगता है। संसार छूटने लगता है। आप के व्यवहार कछुए की तरह अंतर्मुखी होने लगते हैं। 


बाहर आप होते हैं। लेकिन एक कठपुतली की भांति। जिसकी डोर कहीं और होती है। 

कर्ताभाव खत्म होने लगता है। मैं निरीह होने लगता है, अहंकार की हर डोर कटने लगती है,जो कष्टकारी होती है। क्योंकि उससे अटेचमेंट बहुत होता है।  

जैसे मेरा नाम, पद, पैसा, परिवार सामान्य व्यक्ति की इनसे मोह की डोर 24x7 बंधी रहती है। जगृति के बाद ये जाएं न जाएं लेकिन इनसे मोह की डोर कटने लगती है। 

आप किसी से ऊपर नही पहुँचते, बल्कि अंतर तो मिटने लगता है। आप श्रेष्ठ नही बनते बल्कि श्रेष्ठता के सारे उपाय छूटने लगते है।

हर एक सीढ़ी हटने लगती है जो अन्य से श्रेष्ठ होने का भान कराती है। आप सबसे क्षुद्र हो जाते हैं। आगे की बजाये सबसे पीछे खड़े होने में आनंद आने लगता है। ....फिर भी ये शब्द ही हैं इन पर पूरा यकीन न करें। खोज जारी रखें।