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ध्यान कैसे करें? ध्यान का सबसे सरल तरीका? कुण्डलिनि और आत्म साक्षात्कार का विज्ञान? – P अतुल विनोद

ध्यान कैसे करें? ध्यान का सबसे सरल तरीका? कुण्डलिनि और आत्म साक्षात्कार का विज्ञान? – P अतुल विनोद 

@womguru #womguru


आर्टीकल पूरा पढ़ें

यूं तो ध्यान स्वतः होने वाली घटना है| जो मन को निर्विषय होने से खुद ही लगने लगता है| कृत्रिम ध्यान अभ्यास को ध्यान नही कहा जा सकता|

हम शांति के तलाश में मेडिटेशन करते हैं| लेकिन अत्यधिक कृत्रिम अभ्यासों से शांति की अपेक्षा व्यर्थ है|

सोचने, फोकस करने, बॉडी सेंसेशन पर ध्यान देने, विचार, श्वास या  किसी वस्तु, बिंदु पर एकाग्रता का अभ्यास आध्यात्मिक तरक्की  देगा या इससे शांति मिलेगी?  सोचने में अच्छा लगता है लेकिन परिणाम वैसे नहीं आते|

यह सब अभ्यास लंबे समय बाद दिमाग गर्म करने लगते हैं, इससे दिमाग थकता है, दिमाग में उर्जा बढ़ने से व्यक्ति की सोचने समझने की क्षमता कम होती है, ब्रेन में मौजूद एंडोक्राइन ग्लैंड  असामान्य  रिएक्शन शो करती हैं|  इससे मानसिक संतुलन भी गड़बड़ा सकता है|

सबसे पहली बात तो यह है कि ध्यान आध्यात्मिक उन्नति की एक अवस्था है|  यदि आप मानसिक रूप से परेशान हैं उदास हैं, उलझनों से घिरे हुए हैं, तो कथित ध्यान या एकाग्रता का अभ्यास आपको  और ज्यादा मानसिक परेशानी के दौर में ले जाएगा|

ध्यान रखिए आध्यात्मिक उन्नति या कुण्डलिनी जागरण आसन, मुद्रा, बंध, प्राणायाम, क्रिया का परिणाम नहीं है, ये सब आत्म साक्षात्कार की राह में सहायक हो सकते हैं  लेकिन कारण नहीं बन सकते| इनसे लाभ कैसे मिलता है आगे पढ़ते रहें|

कुछ लोग  कुंडलिनी जागरण के लिए  लगातार कपालभाती का अभ्यास कर रहे हैं,  कुछ सांसों को धोंके जा रहे हैं|  कुछ मूलबंध अभ्यास कर रहे हैं|  कुछ अपने मन से ही मंत्रों का जाप कर रहे हैं|

आसन, मुद्रा, बंध, प्राणायाम, क्रियायें यह सब क्रियाएं दरअसल कुण्डलिनी या आत्मशक्ति  के जागरण के बाद होने वाली स्वाभाविक शारीरिक गतिविधियां हैं|

सभी तरह की यौगिक क्रियायें कुंडलिनी के अंदर कोडेड(संरक्षित) हैं|  जैसे ही कुंडलिनी एक्टिवेट होती है  कुंडलिनी के अंदर मौजूद यह कोडिंग खुल जाती है, और सारी क्रियाएं व्यक्ति के शरीर, मन, मस्तिष्क और आत्मा की ग्रंथियों, नाड़ियों, कोशों व चक्रों के अनावरण के लिए ज़रूरत के मुताबिक़ होने लगती हैं|

सवाल ये है कि फिर तमाम योग-तन्त्र आदि ग्रंथों में  कुंडलिनी जागरण, आत्म साक्षात्कार, और आध्यात्मिक उन्नति के लिए योगासन, प्राणायाम और ध्यान के इतने प्रयोग क्यों बताए गए हैं?

निश्चित ही  योग, आसन, प्राणायाम, बंध, मुद्रायें  आत्म जागृति के बाद  स्वतः  होने वाली क्रियाएं हैं|

ये कुण्डलिनी जागरण की प्रतिक्रिया है, यह क्रियाएं इसलिए होती है ताकि व्यक्ति के मन, मस्तिष्क, शरीर और आत्मा का रूपांतरण हो सके|

सबको तो यह क्रियाएं स्वतः हो नहीं हो सकती, क्योंकि सबकी कुंडलिनी रूपी चेतना जागृत नहीं हो सकती|

इसलिए प्राचीन काल में कुछ योगियों ने इन क्रियाओं का कृत्रिम रूप से अभ्यास कराना शुरू किया,  प्रतिक्रिया को क्रिया में बदल दिया|  जो परिणाम था उसे कारण बना दिया|

इसमें कोई बुराई भी नहीं थी क्योंकि इन सभी योगिक क्रियाओं को जब कुंडलिनी रूपांतरण के लिए प्रयोग में लाती है तो हम क्यों नहीं ला सकते? इन क्रियाओं को कृत्रिम रूप से करने को हठ योग कहा गया|

यह बात सही है यह सारी क्रियाएं बहुत महत्वपूर्ण है,  लेकिन किस व्यक्ति के लिए किस प्रमाण में किस तरह से लाभकारी है ये कुंडलिनी तो  निर्धारित कर सकती है लेकिन मनुष्य कैसे करेगा?

मनुष्य बिना सोचे विचारे किसी भी आसन, बंध, मुद्रा, प्राणायाम या ध्यान विधि को पकड़ लेता है और फिर लग जाता है|  एक ही क्रिया का बार-बार दोहराव  शरीर में व्याधि या विकृति पैदा कर देता है|

इन सब क्रियाओं का कब और किस मात्रा में, किस उद्देश्य के लिए प्रयोग किया जाना चाहिए यह सिर्फ आत्म शक्ति जागृत वह साधक सही रूप से बता सकता है जिसको यह क्रियाएं स्वयं ही होती है या हुयी हैं|

इनको मॉडिफाइड नहीं किया जा सकता,  आज के दौर में त्राटक जैसी कृत्रिम विधियों का प्रचलन है,  लेकिन ये त्राटक है क्या? कहां से आया?

त्राटक भी योग मार्ग की सहज उपलब्धि है, इस यात्रा में खुद ब खुद होता है, लेकिन कुण्डलिनी कभी कृत्रिम ज्योति, दिया आदि जलाकर त्राटक नहीं करवाती न ही सूर्य की तरफ देखने को कहती|

आम व्यक्ति कुछ दिनों तक सूर्य की तरफ देखने का अभ्यास करता रहे तो हमेशा के लिए आँखों को खो सकता है| एकटक देखने का अभ्यास करने से आँखें पलक झपकने की स्वाभाविक क्रिया भूल सकती है|

एकटक देखने या आँखों को बंद न कर उसे कष्ट देने से तृतीय  नेत्र जागृत करने की बात न जाने कहाँ से आ गयी और प्रचलित हो गयी? फिर तो अंधानुकरण ने किताबें भी छपवा दी|

यदि आँखों को कष्ट देने से व्यक्ति का तीसरा नेत्र जागने लगता तो दुनिया में क्रांति ही आ जाती| अमेरिका, चीन, जापान की सेनाओं के बड़े हिस्से को सिर्फ इसी अभ्यास में लगा दिया जाता ताकि उनकी तीसरी आँख खुल जाये और उसे वो देश हित में उपयोग कर सकें|

कुंडलिनी और आत्म शक्ति के जागरण के बाद अष्टांग योग घटित होता है|

यह आठ अंग हैं- (1) यम (2)नियम (3)आसन (4) प्राणायाम (5)प्रत्याहार (6)धारणा (7) ध्यान (8)समाधि। उक्त आठ अंगों के अपने-अपने उप अंग भी हैं।

जब आत्म-शक्ति जागृत हो जाती है तब व्यक्ति के अंदर अष्टांग योग का “यम”  घटित होने लगता है,  व्यक्ति के अंदर स्वयं ही  कायिक, वाचिक तथा मानसिक संयम होने लगता है,

1- यम के भी पांच भाग हैं …. 1. अहिंसा – शब्दों से, विचारों से और कर्मों से किसी को अकारण हानि नहीं पहुँचाना, 2-सत्य – विचारों में सत्यता, परम-सत्य में स्थित रहना, जैसा विचार मन में है वैसा ही प्रामाणिक बातें वाणी से बोलना , 3- अस्तेय – चोर-प्रवृति का न होना, 4- ब्रह्मचर्य – दो अर्थ हैं-चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना, सभी इन्द्रिय जनित सुखों में संयम बरतना, 5-अपरिग्रह – ज़रूरत से ज्यादा इकट्ठा  नहीं करना और दूसरों की वस्तुओं की इच्छा नहीं करना यम के ये पंचों अंग खुद ब खुद साधक के व्यक्तित्व के हिस्से बनने लगते हैं|

यदि व्यक्ति की आत्म-शक्ति जागृत नहीं है यानी जिसकी कुंडलिनी जागृत नहीं है वो यम को बलपूर्वक अपने व्यक्तित्व का हिस्सा बनाने का प्रयास कर सकता है,  इसे ही हठयोग कहा जाता है|  जबरदस्ती करके अपने आप को बदलना कठिन है|  लेकिन धीरे-धीरे अभ्यास से व्यक्ति इन पांचों अंगों को आत्मशक्ति के जागृत हुए बगैर भी अंगीकार कर सकता है, अमल में ला सकता है|

जब व्यक्ति कृत्रिम रूप से यम को अपने जीवन का हिस्सा बनाता है तो वह प्रक्रिया को रिवर्स कर देता है| और इससे आत्मशक्ति जागरण में सहायता मिल सकती है|

२- नियम- कुंडलिनी जागृत व्यक्ति के जीवन में नियम भी खुद-ब-खुद उसके व्यक्तित्व का हिस्सा बनते जाते हैं| नियम दरअसल व्यक्तिगत नैतिकता है| 1- शौच – से शरीर और मन की शुद्धि, 2 संतोष – संतुष्ट और प्रसन्न रहना, 3- तप – स्वयं से अनुशाषित रहना, 4- स्वाध्याय – आत्मचिंतन करना, 5-ईश्वर-प्रणिधान – ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण, पूर्ण श्रद्धा  अपने आप पैदा होने लगती है|

जिस व्यक्ति की चेतना रूपी कुंडलिनी जागृत नहीं है, वो व्यक्ति इन 5 नियमों का अभ्यास कर सकता है|  हालांकि अभ्यास से इन नियमों को जीवन का हिस्सा नहीं बनाया जा सकता है लेकिन कुछ सफलता हासिल की जा सकती है|

3-आसन – पतंजलि के अष्टांग योग  का तीसरा अंग है आसन,  पतंजलि ने अपने योग सूत्र में किसी तरह के खास आसन का जिक्र नहीं किया है|  उसकी जरूरत भी नहीं थी|  क्योंकि कुंडलिनी जागृत व्यक्ति को अनेक तरह के आसन अपने आप लगने लगते हैं|  कभी शरीर सीधा बैठता है, तो कभी झुक जाता है,  साधना में बैठते ही शरीर अलग-अलग तरह के पोश्चर्स खुद बनाता है, कुण्डलिनी योग में बनने वाले इन्ही भाव भंगिमाओं को बाद में नाम दे दिया गया और उन्हें कृत्रिम रूप से बनवाने को योग कह दिया गया, इसमें भी कोई बुराई नहीं, आप भी विभिन्न आसनों का कृतिम अभ्यास कर सकते हैं|  इससे आपको निश्चित रूप से शारीरिक लाभ होगा|  यह सभी आसन निश्चित मात्रा में शरीर की जरूरतों के अनुसार ही किए जाने चाहिए|

4- प्राणायाम … योग की यथेष्ट भूमिका के लिए नाड़ी शोधन और उनके जागरण के लिए होने  वाला श्वास और प्रश्वास का नियमन प्राणायाम है। कुंडलिनी जागृत व्यक्ति को श्वास-प्रश्वास से जुड़ी हुई अनेक क्रियाएं होती है| कभी सांस बहुत तेजी से चलती है तो कभी धीरे,  कभी शरीर सांसे फेकता है, तो कभी धोंकनी की तरह लेता और छोड़ता है| कभी श्वास अंदर रुक जाती है तो कभी बाहर|

यह सभी  क्रियाएं स्वाभाविक रूप से आन्तरिक शुद्धि, संस्कारों ,विकारों के विसर्जन  और आध्यात्मिक मार्ग सुषुम्ना को खोलने के लिए होती हैं|  इन्हीं स्वाभाविक क्रियाओं को आगे चलकर प्राणायाम का नाम दिया गया और इन्हें कृत्रिम रूप से करवाने का उपक्रम भी शुरू हुआ|  योगियों ने सोचा जब कुंडलिनी स्वयं ये क्रिया करवाती है तो निश्चित ही इनके पीछे उसका कोई विज्ञान छिपा होगा|  तो वो आम मनुष्य को इस तरह की श्वासप्रश्वास की क्रियांएँ कराने लगे|  हालांकि कृत्रिम रूप से किया जाने वाला प्राणायाम उस गहराई को नहीं छू सकता जो कुंडलिनी के द्वारा होता है|  कुंडलिनी के द्वारा स्वतः होने वाला प्राणायाम अद्भुत और अनूठा होता है| वो शरीर के ऐसे अंगो में भी होता है जहां कृत्रिम रूप से मनुष्य संपादित नहीं कर सकता|

इसी प्राणायाम के द्वारा कुंडलिनी जागरण की कई विधियां प्रचलित हो गयीं|  प्राणायाम की इन विधियों को आप भी कर सकते हैं लेकिन सोच समझकर,  प्राणायाम गूढ़ और गहन आध्यात्मिक प्रक्रिया है|  इसके साथ भाव, संकल्प, शुद्धता,  यम और नियम  साथ में आसन को भी साधना ज़रूरी है|

5- प्रत्याहार -कुंडलिनी की यात्रा में व्यक्ति के व्यक्तित्व में प्रत्याहार  घटित होने लगता है|  साधक की इंद्रियां  चंचलता को छोड़ अंतर्मुखी होने लगती हैं|  व्यक्ति स्वाभाविक रूप से उन इंद्रियों का दासत्व  छोड़कर मालिक बनने लगता है|

यह भी एक स्वाभाविक होने वाली स्थिति है,  इसे आप हठ पूर्वक भी अपने जीवन का हिस्सा बना सकते हैं, बलपूर्वक अपने इंद्रियों का निरोध करने की कोशिश कर सकते हैं|  लेकिन जबरन इंद्रियों को अपना दास नहीं बनाया जा सकता है, जब तक की संकल्प शक्ति और चेतना का जागरण ना हो|  फिर भी कोशिश करने में कोई हर्ज नहीं|

6- धारणा – कुंडलिनी योग, सिद्धमहायोग में, आत्मशक्ति की जागृति के बाद धारणा के अनेक प्रयोग  शरीर, मन, मस्तिष्क और आत्मा के तल पर होते हैं|  कभी आंखें बंद होकर शरीर के किसी एक स्थान पर ध्यान लग जाता है तो कभी आंखें खुली रह जाती हैं, कभी आंखें  आधी बंद होती है और आधी खुली|  इन सभी मुद्राओं को शांभवी व अन्य मुद्रा कहते हैं|

यहां एकाग्रता से जुड़े अनेक अनुभव आते हैं, इन अनुभवों को धारणा कहते हैं|  धारणा के अंतर्गत त्राटक भी आता है|  कभी ईश्वर के विराट स्वरूप के दर्शन होते हैं और उसमें मन लग जाता है तो कभी किसी सूक्ष्म स्थिति में मन केंद्रित हो जाता है|  कभी विभिन्न तरह के दृश्य उपस्थित होते हैं तो कभी अलग अलग तरह की धनिया सुनाई देती हैं|

आगे चलकर इस स्वाभाविक योग को  कृत्रिम रूप से करवाने की अनेक विधियां प्रचलित हुयीं, जो स्वाभाविक रूप से घटित होता है,  उसे अलग-अलग तरह के नाम देकर अलग-अलग तरह की विधियां विकसित हो गई|

हार्टफुलनेस, विपासना, माइंडफूलनेस,  सुदर्शन क्रिया, क्रिया योग,  सहज योग,  ध्यान योग,  भावातीत ध्यान,  स्वर योग,  शांभवी योग,  त्राटक आदि मॉडरेटेड योग इसी धारणा के अंतर्गत खुद होने वाले योग में से निकली हुई क्रियाएं  हैं इनका अभ्यास आप कर सकते हैं|  लेकिन इनके अभ्यास से अध्यात्म के शिखर पर पहुंच जाएंगे? शायद नहीं|

7- ध्यान: कुंडलिनी योग सिद्धि योग या महायोग में  अष्टांग योग में वर्णित ध्यान भी घटित होता है|  मन निर्भय हो जाता है,  चित्त की वृत्तियों का निरोध हो जाता है|  आत्मा का साक्षात्कार हो जाता है|  साधना में बैठते ही ध्यान अपने आप उपस्थित हो जाता है|  उसके लिए किसी तरह  के अभ्यास की जरूरत नहीं|

ध्यान को आप कृत्रिम रूप से नहीं कर सकते|  ध्यान उपलब्धि है ध्यान कारण  या क्रिया नहीं|  फिर भी ध्यान करने की इच्छा है तो आप सहज और शांत रूप से बैठे आंखें बंद कर लें|  किसी भी तरह की एक्टिविटी का सहारा ना लें|  ना तो श्वास गिने ना ही  शरीर के किसी अंग को देखने की कोशिश करें| रोज़ १५ मिनट इस तरह से बैठने का अभ्यास करें|

आप सीधे बैठ कर कुछ देर तक  गहरी सांसे लें,  इसके बाद कुछ देर तक तेज सांसे लें,  श्वास लेते और छोड़ते समय ओंकार का उच्चारण करें, प्रणव जप के साथ रेचक पूरक और कुंभक का अभ्यास करें,  मोबाइल में  ओंकार की कोई अच्छी ध्वनि लगा सकते हैं,  घंटनाद, शंखनाद या भजन व मंत्रों को भी प्ले कर सकते हैं|

आंखें बंद करके आप ईश्वर के साकार या निराकार स्वरूप का चिंतन कर सकते हैं,  ईश्वर के गुणों का चिंतन कर सकते हैं,  भजन कर सकते हैं,  अपने इष्ट या गुरु का चिंतन कर सकते हैं|

8- समाधि: यह चित्त की अवस्था है जिसमें चित्त ध्येय वस्तु के चिंतन में पूरी तरह लीन हो जाता है। योग दर्शन समाधि के द्वारा ही मोक्ष प्राप्ति को संभव मानता है।

ये  कुंडलिनी योग की परिणीति है|  इसे आप कृत्रिम रूप से प्राप्त नहीं कर सकते|   जड़ होकर घंटों एक ही जगह बैठे रहने,  बेहोश हो जाने,  सुध बुध खो देने का नाम समाधि नहीं है|

वास्तव में कुंडलिनी जागरण  व्यक्ति के प्रारब्ध की  साधना,  कर्म फल,  सत प्रवृतियां,  सहजता,  ईमानदारी,  सद्गुण,  ईश्वर या गुरु की कृपा और अनुग्रह का परिणाम है|

कुंडलिनी जागरण की पात्रता विकसित होते ही  आप योग्य मार्गदर्शक के पास पहुंच जाते हैं|  प्रकृति खुद ब खुद आपको ऐसे  गुरु या  मार्गदर्शक तक पहुंचा देती है|

मार्गदर्शक आपको  आत्म शक्ति के जागरण के लिए मंत्र या साधना के कुछ प्रयोग दे सकता है|

दिए गए मन्त्र व प्रयोग यदि भावना, समर्पण  और  विश्वास के बिना किए जाए तो इनका कोई लाभ नहीं ये सिर्फ एक्सरसाइज बनकर रह जाएंगे|

ध्यान कोई विधि नही है। ध्यान आदि की कृत्रिम विधियां नुकसानदायक हैं। कथित ध्यान विधि हो मात्र फोकस हैं उनसे कृत्रिम अनुभवों से ज़्यादा कुछ प्राप्त नही होगा उल्टा नुकसान होगा।

गुरु मंत्र भी लाभदायक नही जब तक गुरु शक्तिशाली नही। ये सब अभ्यास या एक्सरसाइज करने की बजाए पहले चरित्र में निर्मलता लाएं, कपट लोभ लालच और बेईमानी से दूरी बनाएं, ईश्वर के प्रति विश्वास और अनुराग बढ़ाये, एकांत में आंख बंद कर शांत बैठें किसी तरह के ऑब्जर्वेशन का अभ्यास न करें|

सांसे गिनो , साक्षी बनो, देखो, सब कृत्रिमता हैं जो बस आपको अधिक सेन्सटिव्ह बनाते हैं और उपद्रव खड़ा करते हैं।

आप बस स्वयम को सहज बनाएं, सम्वेदनशील इंसान बने, निस्वार्थता, सहृदयता आदि गुण विकसित करें। जीवमात्र के प्रति करुणा, कृतज्ञता व प्रेम का भाव विकसित करें|

यदि आप हठ योग के माध्यम से इस मार्ग पर चलना चाहते हैं तो योग्य गुरु का सहारा लें| भक्ति योग, लय योग, ज्ञान योग के माध्यम से भी आप पात्रता विकसित कर सकते हैं|

क्रमशः