रिश्तों की बुनियादी शर्तें
अतुल विनोद
इस दुनिया में रिश्ते निभाना कठिन हो चुका है। दरअसल जबसे रिश्ते नामों से बंध गए तब से रिश्ते रिश्ते ना होकर व्यापार बन गए, लेन-देन का माध्यम बन गए। सुविधा पर आधारित हो गए।
जब तक कोई व्यक्ति हमारे लिए सुविधाजनक होता है तब तक उसके साथ हमारा नाम वाला रिश्ता चलता है और जैसे ही रिश्ता असुविधाजनक हुआ उस रिश्ते में खटास आ जाती हैl
नाम ही रिश्ते का दुश्मन है। जब हम किसी रिश्ते को नाम देते हैं तो उस नाम के साथ हमारी कुछ शर्ते जुड़ जाती हैं। कुछ नियमावली कुछ अपेक्षाएं बंधन, कानून, उस पर लागू हो जाते हैं। इसी वजह से वो रिश्ता, रिश्ता न रहकर नियम कायदे कानून अपेक्षाओं का एक बोझ बन जाता है।
मजबूरी यह है कि समाज की व्यवस्था में हम बिना नाम का कोई रिश्ता कायम नहीं रख सकते। हमें हर रिश्ते को कोई ना कोई नाम देना पड़ेगा।
समाज की व्यवस्थाओं को इतने जल्दी बदला भी नहीं जा सकता। नाम देना जरूरी है
खून के रिश्तो को जन्म लेते ही नाम मिल जाता है। इसके बाद जो रिश्ते बनते हैं उन्हें हम नाम देते हैं।
पति- पत्नी, भाई -बहन, अंकल- आंटी, फ्रेंड ,गर्लफ्रेंड -बॉयफ्रेंड लिव इन पार्टनर ऐसे नाम है जो खून के ना होने पर भी किसी व्यक्ति को दिए जा सकते हैं।
रिश्तों का नामकरण चाहे प्राकृतिक रूप से हुआ हो या जन्मजात।
हमें उन रिश्तो में ठीक उसी तरह की ईमानदारी बरतनी चाहिए जैसे कि हम किसी अनाम रिश्ते के साथ बरतते हैं।
जहां ना तो हमें कोई अपेक्षा होती है ना हमारी कोई शर्त होती है। ना ही हमारी कोई रीति नीति और कानून उस पर लागू होता है। लेकिन वह प्रेम का निस्वार्थ रिश्ता हमें सबसे ज्यादा अच्छा लगता है, क्योंकि उसमें कोई बंधन नहीं होता।
इसी तरह से हमें नाम वाले रिश्तो में भी बंधन कम कर देना चाहिए। रीति- नीति को जितना हो सके न्यूनतम कर दिया जाए।
जितने कम कानून होंगे जितने कम बंधन होंगे जितनी कम नीतियां, जितनी कम अपेक्षाएं होगी उतना ही वो रिश्ता बरकरार और बेहतर रह सकेगा।
व्यक्ति आत्मिक रूप से स्वतंत्र रहना पसंद करता है। किसी की आत्मा परतंत्रता गुलामी या किसी भी तरह की व्यवस्था को स्वीकार नहीं करती।
भले ही वह व्यक्ति सामाजिक धारणा और मान्यताओं के कारण किसी रिश्ते में बंध गया हो लेकिन तब भी वह व्यक्ति आत्मिक रूप से स्वतंत्र ही रहना चाहता है। किसी के कहने पर चलना उसे गवारा नहीं होता। दूसरी बात यह है कि व्यक्ति को अपनी जीवनशैली में बहुत ज्यादा व्यवधान पसंद नहीं आते। बार-बार की रोक-टोक पसंद नहीं आती
हर व्यक्ति के जीवन की अपनी शैली होती है। हर व्यक्ति कुछ संस्कारों के साथ पैदा हुआ कुछ प्रारब्ध के पर्सनैलिटी ट्रेट्स भी उससे जुड़े हुए होते हैं।
कुछ उसके रुझान होते हैं जो उन्हें बहुत प्यारे होते हैं।
हमें अपने रिश्ते में व्यक्ति के रुझान, उसकी रुचियां, उसकी पर्सनैलिटी के खास तरह के ट्रेट को समझना होगा और उनके साथ जीना होगा।
एकदम से किसी को बदलना बिल्कुल भी ठीक नहीं है । बदलने की बात ही हमें छोड़ देनी चाहिए। हमारा प्रेम यदि शक्तिशाली है तो व्यक्ति स्वयं ही अपने आप को हमारे अनुरूप ढालने की कोशिश करेगा।
हम किसी के जीवन में ऐसे रहे जैसे कि हम हैं ही नहीं। इसका मतलब यह नहीं है कि हमारी उपस्थिति में प्रेम, सहयोग का आभास नहीं होगा।
हम जितना ज्यादा पानी की तरह रह सके उतना ही अच्छा। जितना सहज ,जितना ज्यादा इनविजिबल उतना अच्छा।
किसी की लाइफ को भी हमारी वजह से कोई डिस्टरबेंस क्रिएट ना हो और यह स्थिति जब बनेगी तो हमारी एक एक बात शक्तिशाली हो जाएगी। हम किसी व्यक्ति से कुछ कहते बहुत प्रेम से आसानी से तब भी व्यक्ति समझता है।
बार-बार के नियम कायदे बंधन व्यक्ति को अंदर ही अंदर हमारा दुश्मन बना देते है।
व्यक्ति यदि हमसे बात करने में असहज है हमसे बात करते समय वह अपना गुस्सा नहीं निकाल पा रहा है, तो अंदर ही अंदर उसके मन में बैठा वो क्रोध हमारे प्रति घृणा में तब्दील हो जाएगा।
हर रिश्ते में इस बात की गुंजाइश रहनी चाहिए कि सामने वाला व्यक्ति हमारे ऊपर अपना गुस्सा निकाल सके।
हमसे कोई नाराजगी है तो जाहिर कर सके।
हम भी यही चाहते हैं। प्रेम तभी हो सकता है जब हम किसी व्यक्ति पर अपना गुस्सा निकाल सकते हैं।
बहुत ज्यादा अपेक्षाएं इच्छाएं कष्ट का कारण बनती हैं। हर व्यक्ति आपकी सभी अपेक्षाओं पर खरा उतरे संभव नहीं
हर व्यक्ति की अलग सोच है अलग दृष्टिकोण है। अलग शारीरिक स्थिति है।
बार-बार की शिकायतें व्यक्ति को तोड़ देती हैं। यदि व्यक्ति किसी रिश्ते में बंधा हुआ है तो मजबूर है आपकी शिकायत सुनने के लिए। लेकिन इसके बावजूद भी वह अंदर से आपकी शिकायत को स्वीकार नहीं करता। क्योंकि उसका अहंकार ऐसा नही करने देता । वह अंदर ही अंदर आपका दुश्मन बन जाता है।
ऐसी बहुत सी बातें हैं जो रिश्ते में ध्यान रखने की हैं। लेकिन मूल रूप से बात इतनी है रिश्ते को जितना ज्यादा सुविधाजनक बना सके उतना ज्यादा बेहतर।
बहुत ज्यादा भावनाओं में ना बहे l यहां निस्वार्थ प्रेम की अपेक्षा करना भी व्यर्थ है, क्योंकि आप भी किसी से बिना स्वार्थ प्रेम नही करते।

