कर्म क्या हैं ? ये हमारे जीवन को कैसे प्रभावित करते हैं ?
कर्मो के बंधन से हम कैसे मुक्त हो सकते हैं ?
Atul Vinod: -
कर्म के विज्ञान को समझने से पहले हमें ये जानना होगा कि प्रकृति क्या है ये किस प्रकार काम करती है?
प्रकृति खुद एक अद्वितीय चेतना हैं उसकी शक्ति के सामने हम मनुष्य तो कुछ भी नहीं हैं बस उसका एक छोटा सा अंश हैं l
प्रकृति का स्वभाव ही हैं स्वचलन वो स्वतः ही चलती रहती है। स्वतः ही क्रिया करती है। उसे क्रिया करने के लिए किसी बाहरी फाॅर्स की जरूरत नहीं है l इसे थोड़ा पास से जानने के लिए अपने आस पास थोड़ा नज़र डालिए और देखिये पेड़ -पौधों को, जीव जन्तुओ को, मौसम को देखिये -
कैसे ये आपकी जरूरतों के मुताबिक ऑटोमेटिक क्रिया करते है बारिश खुद होती हैं गर्मी होती है। सर्दी भी खुद ही होती है। उन्हें कोई करता है क्या ?
नहीं ! क्योंकि ये सुपर नेचुरल पावर है। चेतना का विस्तार है। वो मनुष्य की तरह खुद को समेट कर नहीं रखती है l
असीमितता ही उसकी पहचान है। इस दुनिया में केवल मनुष्य की ऐसा प्राणी है। जो इतना सिमित है उसने अपने सीमित दायरे खुद ही बना लिए हैं। और उसी को सब कुछ मान बैठा है।
प्रकृति में रहने वाले सभी जीव प्रकृति की रचना है इसी नाते मनुष्य का स्वभाव भी स्वतन्त्रता है।
आज दुनिया में ज्यादातर लोग दुखी इसलिए नहीं हैं की उनको उनके कर्मो का फल मिल रहा है, बल्कि इसलिए क्योंकि उन्होंने खुद को छोटे से दायरे में बांध रखा है।
मन ने उन्हें इस कदर बांध लिया है कि अब बाहर जाने का रास्ता दिख भी जाये तो वो झूठ लगता है।
मनुष्य में प्रकृति का अंश हैं जिससे वो जिन्दा है, साँस लें रहा है, खाना खा रहा है, क्रिया कर रहा है।
वो बेचैन है उसे ऐसे छोटे दायरे में रहना पसंद नहीं हैं उसे तो स्वतंत्रता चाहिए सफलता चाहिए l
मनुष्य तब तक सुखी नहीं हो सकता जब तक वो खुद को ना जान लें अपनी स्वभाविक स्थिति में ना आ जाये तब तक वो खुश नही रह सकता l
बाहर की वस्तुएँ दौलत शोहरत थोड़ी देर का सुख दे सकती हैं। परन्तु थोड़े समय बाद फिर आपकी स्थिति वही हो जाती हैं जो पहले थी ।
सच्चा सुख तो एकरूपता में है। हम सब खुश होते हैं जब पूरी दुनिया खुश होती है।
जब तक दूसरे दुखी रहेंगे तब तक उनका असर हम सब पर होता रहेगा।
हम माने या ना माने यही सच हैं अगर हमें ख़ुशी चाहिए तो ख़ुशी देनी होगी। सबको खुश देखने का सपना देखना होगा l
पर मनुष्य का मन संकुचित हैं वो स्वार्थी भी है। वो सिर्फ खुद के लिए करना चाहता है।
खुद के अहंकार को पोषित करने के लिए दुसरो के बारे में जरा भी विचार नहीं करता।
यही से संकुचित कर्म की शुरुआत होती है। संकुचित मन मनुष्य से जो भी कार्य करवाता हैं उसके बुरे परिणाम होते हैं। भोगना भी उसी को पड़ता है।
इसमें प्रकृति की कोई भागीदारी नहीं हैं मनुष्य इस फ्री विल का गलत इस्तेमाल करता है। इसलिए आज दुनिया में त्रासदियां ही त्रासदियां हैं।
पाप और पुण्य कुछ नहीं हैं लेकिन मन के कार्यो के परिणाम हैं। इससे बचने का उपाय एकमात्र यही हैं कि आप सिर्फ प्रकृति की क्रियाशीलता को समझे उसके साथ एक हो जाये।
आपके पिछले कर्म भी आपको परेशान नहीं करेंगे
प्रकृति के नियमो के अनुसार चलने वाले हमेशा आनंद पूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं
वो हमेशा खुश रहते है
उन्हें हर समस्याओं के समाधान मिल जाते हैं l

