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गुरु की परिभाषा

Atul vinod
गुरु को लेकर भारतीय दर्शन में अनेक किताबे हैं , गुरु।के लिए अलग से गीताएँ भी रची जा चुकी हैं। आपको हर स्तर पर गुरु की अनेक प्रकार की परिभाषाएं मिलेगी , लेकिन शरीर की मर्यादाओं और सीमाओं से घिरे व्यक्ति में गुरु के किताबों में वर्णित गुण मिलना एक कपोल कल्पना ही है।
वास्तव में हर एक व्यक्ति में सद्गुरु भी छिपा है और असद गुरु भी। एक मनुष्य को अपनी विशिष्ट क्षेत्र में प्रगति के लिए किसी उपयुक्त मार्गदर्शक का चुनाव करना चाहिए उसमें जो भी सत है जो भी बेहतर है जिससे भी आप सीख सकते हैं उतना सीखिए। उसकी कमियों पर ध्यान देना, उसके बारे में कोई फैसला देना,आपका काम नहीं है। आपका काम हर अच्छे व्यक्ति से अच्छाई ग्रहण करना है।
दूसरी बात यह है कि व्यक्ति खुद अच्छा शिष्य नहीं है ना ही वह अच्छा शिष्य बनना चाहता और किसी ऐसे गुरु की तलाश में है जिसकी चर्चा ग्रंथों में की गई है।
आपको वशिष्ठ चाहिए तो राम बनना पड़ेगा आपको सांदीपनि चाहिए तो कृष्ण बनना पड़ेगा।
आप स्वयं क्या है उसी स्तर का गुरु तलाश कीजिए। यदि आप गृहस हैं तो गृहस्थ गुरु तलाश करें, यदि आप सन्यासी हैं तो किसी सन्यासी को ही गुरु बनाएं।
यदि गृहस्थ किसी संन्यासी या ब्रह्मचारी को अपना गुरु बनाएगा तो वह बेमेल गठबंधन होगा। आपकी जितनी व जैसी पात्रता होगी आपको उसी स्तर का गुरु प्रकृति उपलब्ध करा देगी बस अपने अंदर एक बार शिष्य बनने का भाव पैदा करें।