वस्तुत: हम जिस जगत में रहते हैं वह काल के रथ पर सवार है:
हम जिस जगत में निवास करते हैं, वह काल के रथ पर सवार है और उसकी एक निश्चित व्यवस्था और विकास की गति है। इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो श्री अरविन्द की योग तपस्या का लक्ष्य, परम परात्पर की अभिव्यक्ति की योजना में पूर्व-निर्धारित, नियत और सृष्टि के विकास का अंतर्निहित सत्य है।
मानव दृष्टिकोण से:
लेकिन जहाँ तक हम मानव काल के जिस बिन्दु पर स्थित हैं, वहाँ से देखने पर उनकी वर्तमान योग तपस्या का संबंध प्राणि-शरीर के भौतिक कोशों के योग के प्रारम्भ की दृष्टि से उनके योग में आरोहण और अवतरण का सिद्धांत नवीन सृष्टि के दृष्टिकोण से विशिष्ट, महत्वपूर्ण, अपूर्व एवं मौलिक है।
सृष्टि का विकास:
इस प्रकार हमारी सृष्टि का विकास वस्तुतः सब कुछ अपने अंदर समाहित करने वाली दिव्य परात्पर सत्ता का अपनी कार्यकारी शक्तियों के साथ क्रमिक अभिव्यक्ति या अवतरण है।
अर्ध-सचेतन मानव सत्ताएं:
लेकिन हमारे लिए अर्ध-सचेतन मानव सत्ताओं के लिए यह भौतिक तत्व में ही पहले से ही अनर्निहित एवं अनुस्थूत प्रतीत होता है।
कृष्णावतार और श्री अरविन्द:
इस दृष्टिकोण से विषय को लेने पर कृष्णावतार और श्री अरविन्द एक महान दिव्य सृष्टि के सृजन के लक्ष्य के निर्णायक निर्णायक घटनाक्रम हैं।
श्री अरविन्द दर्शन:
श्री अरविन्द दर्शन की दृष्टि से ये आविर्भाव या दिव्य अवतरण अपनी प्रकृति में "वैश्व" तथा "जगत की क्रिया में चिरस्थायी" हैं और इसी कारण वे "निर्वैयक्तिक सत्ताएं" नहीं हैं।
ऋत-चित:
इन महान शक्तियों का सच्चिदानन्द के आनंद तत्व से सीधा संपर्क है।
श्री अरविन्द की साधना:
श्री अरविन्द ने सच्चिदानन्द के आनंद तत्व की प्रतिष्ठा पार्थिव जड़त्व में करा दी।
भागवत्-मुहूर्त:
श्री अरविन्द ने अतिमानसिक सृष्टि के सात सूर्यों का वर्णन किया है।
सिद्धि-दिवस:
इसलिए सिद्धि-दिवस (नवंबर 24, 1926) उस महान देव के पार्थिव अवतरण की तिथि बनी जो कि पुराणी जी के शब्दों में: "अधिमन में आनन्दमय चेतना जो श्री कृष्ण का अवतरण था, -एक 'अवतार' के रुप में भौतिक में अवतरण का यह दिन, भौतिकता को चीरते हुए, अतिमानस का जड़-भौतिक में अवतरण संभव बनाया।"
उपरोक्त स्थितियाँ यह स्पष्ट करती हैं कि श्री अरविन्द का वास्तविक कार्य, अतिमानसिक शक्ति की जड़-भौतिक पार्थिव जीवन में प्रतिष्ठा के कार्य का गहरा संबंध प्राण सत्ताओं के भौतिक कोशों के योग से है।
