किस्सा कुर्सी का… नीति की तिलांजलि या वक्त है बदलाव का? P अतुल विनोद…. क्या कालचक्र बदल गया है? इतिहास गवाह है सियासत के समंदर से निकलने वाले मोती, मोती शब्द को ही कलुषित करते हैं| लेकिन क्या वक्त बदल रहा है? क्या राजनेताओं की युवा पीढ़ी ठहरे हुए पानी में हलचल मचा कर, जडवत हुई राजनीति की गंदगी को साफ करने का बीड़ा उठा रही है? राजनीति का सागर मैला भी है और नमकीन भी| गांव गांव में राजनीति के शक्ति के केंद्र सक्रिय हैं| शक्ति की ये चाह राजनीतिक और समाजिक अलगाव का कारण बनती है| नीति की बुनियाद पर खड़ा राज अपनी बुनियाद को चोटिल करने में कोई कसर नहीं छोड़ता| अब जो हो रहा है क्या वो भी यही है? अब दावा है निति के लिए ही बगावत है, अच्छी बात है यदि अपने ही नीति और आदर्श के लिए सत्ता की चूलें हिलाने का साहस कर पा रहे हैं| लेकिन बात सिर्फ अहंकार और शक्ति के केंद्र बनने तक सीमित है तो फिर माथे पर सिलवटें बढ़ती हैं| सियासत के अहंकार की बेदी पर, महत्वाकांक्षाओं की बलि चढ़ने को अब लोकतंत्र राजी नहीं है| हमारे राष्ट्रीय जीवन में बुराइयां इस कदर घर कर गई कि देश आज भी विकासशील बनकर संघर्ष कर रहा है| इसकी सबसे बड़ी जिम्मेदार सियासत ही है क्योंकि उसी ने देश की राज सत्ता की कमान संभाली है| अकर्मण्यता, नीतिहीनता और संकल्प हीनता को जायज ठहराने वाली बुराई| पाखंड का प्रपंच, वचन और कर्म के बीच पैदा हुई गहरी खाई को नेताओं ने पद की लालसा में ढोते रहने में ही भलाई समझी है| दंभ और अहंकार, मान और सम्मान, पद और प्रतिष्ठा की लड़ाई में जनता ही पिसती है नेता नहीं| उम्मीद है अब युवा नेता इससे ऊपर निति के लिए मैदान में हैं| ऐसा सोचने में हर्ज क्या है? कुछ तो अच्छा सोचें? अचानक अलगाव के शंखनाद का दौर है| कौन अपना है कौन पराया पता नहीं| अवसरवाद के चक्रव्यू में जो इस पाले में आ गया वो अपना, जो उधर चला गया वो पराया| लेकिन जनता ऐसा नहीं सोचती| महाराज नाराज हो गए, उधर से इधर आ गए| पराए अपने हुए तो देवता बन गए, अपने पराए हुए तो दानव नजर आने लगे| "माफ़ी" (माफ़ करो महाराज) सम्मान में बदल गई| जय-जयकार प्रहार में बदल गया| पायलट जहाज से उतर गए| जहाज हवा में डोलने लगा| पार लगाने की जिम्मेदारी थी| हवा में ही सम्मान याद आ गया तो स्टेरिंग छोड़ कूद गए| कहते हैं डूबते जहाज से सबसे पहले चूहे भाग जाते हैं| यहां तो चलते जहाज से ड्राइवर ही उतर| अजब पहेली है| बेवफाई का वफा वाला आलम है| आदमी चला गया लेकिन परछाई का भूत सता रहा है| भूत का पीछा करने से कभी किसी को कुछ मिला है क्या? जो बचा है उसे बचाने की जद्दोजहद जारी है| कहते हैं कि जनता की लड़ाई है, लेकिन जनता हैरान है, सवाल खड़ा है? ये प्रजा पोषक हैं या प्रजापीडक| सोच का दीवालियापन, विश्वास की मुसीबत, निष्ठा की मंदी, प्रतिद्वंदी का आक्रमण कहाँ ले जाएगा? हुकूमत है एक लुटेरी परछाई| जब अपनों को ही नजर नहीं आती तो दूसरों को कैसे दिखाई देगी| कहते हैं अचानक राजा महाराजाओं को अपनी सत्ता के पीछे की काली परछाई नजर आई है, उनकी अंतरात्मा जागी है? जागी भी है या नहीं लेकिन कहते तो यही हैं! जब देशद्रोह के मामले के ठीक पीछे अपनी ही हुकूमत की लुटेरी परछाई नजर आती है तो फिर सवाल खड़ा होता है? कहीं ये अभिमान की लड़ाई तो नहीं? दावा है कि बगावत है सत्य के पक्ष में| जाग गया है विवेक| क्या सचमुच? यदि ऐसा है तो इससे अच्छी कोई बात नहीं| कहते हैं लोकतंत्र हारेगा| लेकिन लोकतंत्र नहीं हारता लोकतंत्र हमेशा जीतता है| दुविधा हमेशा खतरनाक होती है | असमंजस नुकसान करता है| अच्छा हुआ जो घर की लड़ाई सड़क पर आ गई| जनता भी समझ ले| दिल की बात जुबां पर आनी ही चाहिए| अंदर का खेल उजागर होना ही चाहिए| क्योंकि ये खेल आपका नहीं| ये प्रतिस्पर्धा जिस कुर्सी को लेकर है वो कुर्सी बहुत महत्वपूर्ण है| राजनीति की छवि की चिंता किसे है? जनता की नजर में तो वो पहले से ही धूमिल थी| उजली कब थी जो 1,2 घटनाक्रम से काली हो जाएगी| सत्ता के पीछे हमेशा तिकड़म, दंगल, जीत हार, उठापटक रही है| अच्छा हुआ जो अंदर की कलह सार्वजनिक हो गई| समझौते होते इससे पहले ही बगावत हो गई| मंथन जरूरी है| विष कौन पिएगा और अमृत किसके हाथ लगेगा? जनता तो चाहती है कि अमृत देवताओं के हाथ लगे| देवता कौन है? खुदको मानते तो सब हैं| लेकिन देवत्व मानने से नहीं मिलता आचरण में उतारने से मिलता है| राजनेताओं से कब और किसने उम्मीद की कि वो कुर्सी और स्वार्थ से परे हो जाएंगे? उम्मीद तो इतनी है कि इसके बीच भी वो थोड़ी बहुत ही सही जनता की कुछ फिक्र कर लेंगे| वो भी इसलिए कि अगली बार फिर वोट मांगने आना है| कांग्रेस में एक अजीब खालीपन है| उसे फिर से कामराज योजना की जरूरत है| कांग्रेस के अध्यक्ष और उनके पुत्र कब समझेंगे कि उनकी भूमिका क्या है? पार्टी को अब सत्ता की नहीं जनता के विश्वास को हासिल करने की लड़ाई लड़नी है| बीजेपी को भी ये दिखाना है की तोड़फोड़ की राजनीति राजभोग के लिए नहीं राजयोग के लिए है| असली राजयोग क्या है बताने की जरूरत नहीं| भारत का प्रजातंत्र बहुत परिपक्व है| उम्मीद है इन छोटे-मोटे सियासी झगड़ों से अंधी गली में नहीं पहुंचेगा| जनता अब इतनी बेवकूफ भी नहीं जितनी समझी जाती है| हमारे कुछ राजनेता राजा जनक के उलट हैं| कुशासन की लपटें उन्हें आहत नहीं करती| अपनी ही कुंडली में जकड़े हुए नेता भूल गए हैं कि दलदल के बीच खड़ा उनका सिहासन है और वो मस्ती में अपनों की आवाज को ही नहीं सुन पा रहे हैं| ईमानदारी तो बस कुछ सेंटीमीटर ही बची है| छोटे-छोटे ऑपरेशन से सियासत की इस उठापटक का उद्धार नहीं होना| पायलट कूद जाना चाहते हैं, और शासन के जहाज के मुखिया उन्हें धक्का देने पर आमादा हो जाते हैं| राजनीति सत्ता का दुरुपयोग इस तरह से करती है जैसे बंदर हाथ में उस्तरा आने पर करता है| “कोऊ नृप होई हमे का हानी” जनता को क्या लेना देना आप मुख्यमंत्री बनो या कोई और? सत्ता का दुरुपयोग उस तरह से मत कीजिए जैसे एक नेत्रहीन माइक्रोस्कोप का करता है| सत्ताधीशों के पास पांच नहीं हजारों इंद्रियां हैं| इन इंद्रियों का सुख कितना लोगे? अब सत्ता राम नाम की तरह नहीं रही कि जितना लूट सको उतना लूटो वक्त है बदलाव का देखें आगे क्या होता है?
