तृप्त, संतुष्ट और खुश रहने का नाम ही आत्म-संतोष... P ATUL VINOD
तृप्त, संतुष्ट और खुश रहने का नाम ही आत्म-संतोष (Self-contentment) इसे Satisfaction भी कह सकते हैं|मन में संतोष सबसे बड़ा सुख है| संतोष किसी वस्तु व्यक्ति या साधन से नहीं मिलता| संतोष मन की अवस्था है जब व्यक्ति कृतज्ञ हो जाता है तब कम से कम को भी अधिक मानता है| उसके लिए जीवित होना ही पर्याप्त है| वो ईश्वर द्वारा अनवरत प्राण वायु की उपलब्धता को ही उसकी कृपा मानता है| यदि दो वक्त का भोजन,पीने को पानी, प्रकाश मिल गया तो यही पर्याप्त है संतुष्ट होने के लिए| असंतुष्ट आदमी भोजन, पानी, प्रकाश, वायु और अग्नि की निर्बाध और निशुल्क उपलब्धता पर कृतज्ञता नहीं होता उसे इससे अधिक चाहिए|
ये सब बुनियादी चीजें उसे अपना अधिकार लगती है| जीवन जीने के लिए ये सभी बुनियादी आवश्यकताएं परमात्मा अंतिम समय तक पूरा करता है| इनके मिलने पर आम आदमी को संतुष्टि नहीं मिलती उसे संतुष्टि मिलती है उन चीजों से जिनका वास्तव में कोई मोल नहीं|जीवन जीने की अनिवार्य और बुनियादी जरूरतों के अतिरिक्त जो भी आवश्यकता है उनका कोई ख़ास महत्व नहीं| लेकिन हम उन्हें ही सब कुछ मानने लगते हैं| उनकी कमी पर दुखी होते हैं और बढ़ोतरी पर सुखी|
धन, साधन और संसाधन की कमी या बढ़ोतरी से हमें लाभ-हानि, यश-अपयश, सिद्धि-असिद्धि, अनुकूलता-प्रतिकूलता का एहसास होता है|जब व्यक्ति भौतिक पदार्थों को परिवर्तनशील और महत्वहीन मानने लगता है तब उस की अंधी दौड़ खत्म हो जाती है| वो इनके घटने बढ़ने से प्रभावित नहीं होता|ऐसा व्यक्ति समझ लेता है किन के पीछे भागना व्यर्थ है| इसलिए वह जो मिलता है उसी में संतुष्ट हो जाता है| वो समझ जाता है कि ये सब चीजें सिर्फ साधन है साध्य नहीं| उसका फोकस साध्य यानी परमपिता परमात्मा पर हो जाता है|संतुष्टि का मतलब ये नहीं है कि व्यक्ति हाथ पर हाथ रखकर घर बैठ जाए और सब कुछ भाग्य के भरोसे छोड़ दे| वो कर्म करता है, क्योंकि कर्म ही पुरुषार्थ है| हम जिस भाग्य को मानते हैं वो भी हमारे कर्म से ही पैदा हुई वह परिस्थिति है| जो हमें अनुकूल या प्रतिकूल नजर आती है| लेकिन कर्म से भी बड़ी कृपा है| जिसके ऊपर ईश्वर का हाथ हैतो फिर प्रारब्ध और कर्म फल भी गौड़ हो जाते हैं|
परमात्मा की दया से बड़ा क्या है? छोटी मोटी चीजें परमात्मा के सानिध्य, प्रेम और कृपा का स्थान नहीं ले सकती|उत्साह के साथ वर्तमान के प्रत्येक क्षण में कर्म करना, उसे ईश्वर के चरणों में सौंप देना, चीजों के लिए बहुत ज्यादा राग द्वेष न रखना, ना ही उन्हें पूरी तरह से त्याग देना| बस जो है उसके प्रति कृतज्ञ हो जाना| परितुष्ट हो जाना, तृप्त हो जाना और उसके प्रति अहो-भाव, धन्यवाद का भाव रखना यही परम संतोष, आत्म संतोष है|संतोषी व्यक्ति अपनी आत्मा को बहुत आसानी से पहचान सकता है|अतृप्ति, असंतोष, असंतुष्टि संतोष के विपरीत है| जो विपरीत है उसका त्याग करके संतोष का अवलंबन ही आत्म साक्षात्कार का द्वार है|


