दुनिया के पीछे क्या कोई रहस्यमई शक्ति कार्य करती है?
-P ATUL VINOD
हम सबके अंदर एक ऐसी शक्ति कार्यरत है जो बेहद रहस्यमई है| भारतीय सनातन दर्शन इस शक्ति को ब्रह्म-चेतना कहता है|
सृष्टि के पीछे कार्य करने वाली इस विलक्षण ताकत को न जाने कितने रूपों में व्यक्त किया गया है, लेकिन अभी तक इसे अभिव्यक्त करने में पूर्ण सफलता हासिल नहीं हुई है|
आखिर ये ब्रह्म इतना अबूझ क्यों है? आखिर ये पकड़ क्यों नहीं आता?
भले ही ये पकड़ में ना आए लेकिन एक बात जो सत्य है ये कि बुनियादी तत्व एक है| ये भी निर्विवाद है कि ये ब्रह्म तत्व सर्व शक्तिशाली, सर्वज्ञ और सर्वव्यापी है|
इसे हम यूनिवर्सल कॉन्सियसनेस कहें या ब्रह्म चेतना बात एक ही है| और ये भी सच है कि ये अनादि और अनंत है| इसकी शुरुआत है ना ही कोई अंत | जो भी जन्म लेगा वो मृत्यु को प्राप्त होगा लेकिन वो समय के अंतराल में होगा| जो समय से परे है वो अनादि तत्व परम ब्रह्म है|
ब्रह्म न सिर्फ हमारे जीवन का आधार है बल्कि पूरी सृष्टि को चलाने वाला है| ये वो शक्ति है जो नीति निर्धारक है नियंता है सृजक और विनाशक भी है| यदि हम सब का अस्तित्व है तो उस ब्रह्म का भी अस्तित्व है| वो चेतना के रूप में हमारे अंदर विराजमान है ठीक इसी तरह से हम उसके अंदर विराजमान है| यही उसकी खूबी है कि वो हमारे अंदर भी है और हमारे बाहर भी| हम उसके अंदर भी हैं और बाहर भी| वो अद्वैत होते हुए भी द्वैत है|
बीज में ब्रह्म समाहित है लेकिन बीज भी भ्रम है और बीज से बना वृक्ष भी| हमारे अंदर उस चेतना को पूर्ण रूप से जानने और समझने की क्षमता तो नहीं है लेकिन फिर भी यदि हम उसके एक अंश को भी समझ पाए तो हम अपने अंदर मौजूद आनंद के स्रोत को खोल सकते हैं|
वो तिल में तेल की तरह है, दही में घी की तरह | सदा रहने वाला तत्व है| वो ब्रह्मांड से अलग भी है और ब्रह्मांड उसके अंदर समाया हुआ भी है| अजीब सी बात है लेकिन वो अजीब ही है| वो अविनाशी है लेकिन उसके अंदर मौजूद ब्रह्मांड विनाशी है|
ब्रह्म की चेतना से ही जगत चिंतनशील है| वो सब का कारण है लेकिन उसका कारण कोई नहीं है| वो अकारण है| पूरे जगत में रहने वाला वो परमात्मा ही है वो निर्विशेस भी है और वो सविशेष भी है|
वो रूप और रंग से अलग है, वो शरीरधारी नहीं है, लेकिन फिर भी वो रूप और रंग में है और शरीर में भी है|
हमारी सीमित क्षमता वाली बुद्धि उस असीमित ब्रह्म को कैसे जान सकती है?
जब हमें पता चल जाता है कि हम शरीर नहीं आत्मा है| जगत नहीं ब्रह्म है| मरणधर्मा नहीं अविनाशी हैं| तब समझ लेना कि आत्मा और परमात्मा एक हो गई|
खुद को जीब रूप मानना अज्ञान है और अज्ञान ही बंधन का कारण है|
जैसे एक कांच को देखने पर हमारा एक चेहरा उसमें दिखाई देता है| उस कांच को तोड़ दिया जाए तो हमारे अनेक चेहरे उन टुकड़ों में दिखाई देने लगते हैं| मुख एक है लेकिन उन टुकड़ों के कारण अनेक दिखने लगते हैं|
जल एक है लेकिन समुद्र नदी तालाब और कुएं के रूप में अलग-अलग जान पड़ता है|
ऐसे ही ईश्वर एक है लेकिन अलग अलग रूप में अलग अलग दिखाई देने लगता है|
हम सब नदी तालाब कुएं हैं लेकिन हमारे अंदर जल रूपी ब्रह्म मौजूद है वो एक ही है|
जगत परिवर्तनशील(Mutable) है इसलिए माया कहलाता है लेकिन जगत के अंदर मौजूद ब्रह्म अपरिवर्तनीय(Immutable) है |
हम सबके अंदर एक चेतना है चेतना का साधारण रूप ही हमें दिखाई देता है| लेकिन उसका एक शुद्ध रूप भी मौजूद है जो सामान्य आंखों से नजर नहीं आता उसके लिए खोलनी होती है एक दिव्य दृष्टि जिसे तीसरी आंख कहा जाता है| तीसरी आंख खोलने का अर्थ है उस सत्य की तलाश करके उस तक पहुंचना|
जब हम जागते हैं तब कोई हमें देखता रहता है| जब हम सोते हैं जब भी कोई जागता और देखता रहता है| जब हम सपना देखते हैं तब भी कोई उसका अनुभव करता है| ये वो शक्ति है जो हर हाल में दर्शक की तरह देखती है, अनुभव करती है| वो शक्ति क्या है? वही हमारी आत्मा है|
ये आत्मा कौन है? यही तो है उस परमात्मा का छोटा सा “अंश”!

