P अतुल विनोद -
शास्त्र कहते हैं कि हम जितना ज्यादा झूठ बोलते हैं उतना ही ज्यादा उलझते चले जाते हैं| हमारी तकलीफ का बड़ा कारण झूठ ही है| हम दो स्तर पर जीते हैं| एक फिजिकल कॉन्सियसनेस और एक स्प्रिचुअल कॉन्सियसनेस |
भौतिक चेतना का स्तर जब बढ़ जाता है तो आध्यात्मिक चेतना उस से ढक जाती है| हम मूर्खता में खुद को भूलकर लोभ, लालच और कामना के जगत में डूबते और उतरते रहते हैं|दरअसल फिजिकल कॉन्सियसनेस के लेवल पर हमें खुद को लोगों के आकर्षण का केंद्र बनाना होता है| हम अपने आप को आगे बढ़ाने के लिए झूठ का सहारा लेते हैं| झूठी शान, झूठा दिखावा, झूठी बातें, झूठा त्याग, झूठी सेवा झूठा समर्पण झूठा प्रेम|
भौतिक स्तर पर हम सिर्फ और सिर्फ एक स्वार्थी व्यक्ति हैं| लेकिन खुद को ऊंचा उठाने के लिए हम परमार्थी बन जाते हैं| सेवा का चोला ओढ़कर हम छोटी मोटी दान दक्षिणा करके बड़ा सा प्रचार करते हैं| हम जो है नहीं वो दिखने की कोशिश करते हैं| हम जैसे हैं नहीं वैसे बनने की कोशिश करते हैं|एक झूठ से 100 झूठ पैदा होते हैं| हमने जैसा चोला ओढ़ रखा है वैसा साबित करने के लिए झूठ पर झूठ बोलना पड़ता है|हम खुद भी उस में उलझ जाते हैं | अपने आप को वैसा ही मानने लगते हैं जैसा हम दिखाते हैं| हमारी ही वास्तविकता हमें डराने लगती हैं|
हम जैसे हैं वैसे खुद को नहीं देखना चाहते और इसलिए खुद से भी दूर भागते हैं| मन और शरीर दोनों में गहरा नाता है| हमारे झूठ का असर हमारे शरीर पर पड़ता है| ये झूठ हमारे शरीर में घातक रसायन पैदा करता है| इन्हें हम फ्री रेडिकल्स, टॉक्सिक या नकारात्मक ऊर्जा कह सकते हैं|
झूठ से ही क्रोध और भय पैदा होते हैं| यह सब मिलकर हमारे अंदर संस्कार पैदा करते हैं| शरीर में जो सेल्स बन रहे हैं, वे चाहे खानपान के कारण हों , देश काल परिस्थिति के कारण हों या पुराने हों, यदि उन्हें साक्षी -भाव एवं तटस्थ -भाव से देखने लगेंगे तो नये संस्कार नहीं बनेंगे और साथ ही पुराने भी दूर हो जाएँगे। इस तरह प्रज्ञा के पुष्ट होते-होते स्थित-प्रज्ञ / जीवन्मुक्त हो जायेंगे। समता में स्थिर होने पर क्रिया तो करेंगे पर प्रतिक्रिया नहीं होगी।ऐसे में क्रिया सदा रचनात्मक होती है|

