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दुख कैसे दूर हों?

दुख कैसे दूर हों? गीता से निकली कुछ नयी बातें ।

अतुल विनोद: -

श्री कृष्ण ने गीता के माध्यम जीवन का सार बताया है। ये अदभुद ज्ञान हम सबको दुखों से दूर कर ट्रांसफॉर्म कर सकता है। ये शिक्षायें अनुपम है। वेदों का सार है उपनिषद और उपनिषदों का सार है ब्रह्मसूत्र और ब्रह्मसूत्र का सार है गीता। सार का अर्थ है निचोड़ या रस। हम गीता के एक ऐसे कुछ सूत्र कुछ श्‍लोक की चर्चा करेंगे जो जीवन में प्रसन्‍नता के रास्‍ते खोल देगा

 प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।2.65।।

प्रसादे सर्वदुःखानां हानि अस्य उपजायते।
प्रसन्न चेतस हि आशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते

इस सूत्र में कृष्‍ण कह रहे हैं कि हम यदि प्रसन्‍न हो जायें तो सभी दुख खत्‍म हो जायेंगे, क्‍योंकि प्रसन्‍न चित्‍त व्‍यक्ति की बुद्धि आकाश की तरह स्थिर हो जाती है और वह अपने आत्‍म रूप में आ जाता है।

हम मानते हैं कि दुख दूर हों तो सुख मिलेगा लेकिन कृष्‍ण कहते हैं कि आनंदित हो जाओ प्रसन्‍नचित्‍त हो जाओ तो दुख विषाद कष्‍ट पीड़ा सब अपने आप दूर हो जायेंगे।

अशांती को दूर करने की बजाय शांत हो जायें , अशांति सिर्फ बाहर है। अंदर से तो आप तो पहले से शुद्ध हैं , अंधेरे से लडने की बजाय प्रकाश जला लें।

होता उल्‍टा है हम अंधेरे से लडते हैं उसे मिटाने की कोशिश करते हैं लेकिन अंधेरा कभी मिटता है क्‍या? इसलिये अंधेरे से न लड़ें अज्ञान , पीडा कष्‍ट , दुख , विषाद से न लडे बल्‍की ज्ञान , सुख , शांति के दरवाजे खोलें जो आपके अंदर ही है। अंतःकरण शुद्ध ही है वो आत्‍मा तक पंहुचने का दरवाजा है। आत्मा के इतने पास रहकर कोई चीज अशुद्ध नहीं हो सकती।

आपका शरीर अशुद्ध हो सकता है क्‍योंकि ये बाहरी है इससे अंदर जैंसे जैंसे पंहुचेंगे प्‍योरिटी का लेबल बढ़ता चला जायेगा।

जैंसे बल्‍ब के पास रोशनी सबसे तेज होती है दूर होते होते वो धुंधली पडती जाती है। हम बाहर से गंदले हो सकते हैं लेकिन अंदर के सबसे पहले बिंदु यानी आत्‍मा पर हम हमेशा से साफ है, आंनंदित है,प्रकाशवान है बस परते खोलते हुये उस तल पर पंहुचना है। बाहरी खोल उतारते जायें।

जहां अंतःकरण है, सब शुद्धतम है , आत्मा उस शुद्धतम के भी पार है।

कृष्‍ण कहते हैं अपने अंदर जाओ वहां सब कुछ अच्‍छा है, पवित्र है, और जो उस स्‍थान तक पंहुच गया उसे फिर कठिनाईयां, तकलीफें, पाप और पुण्‍य कुछ नही सताते सब भाग खडे होते हैं।

हमारी जो परेशानियां है, टेंशन है वो सब बाहरी खोल पर चढ़ी धूल भर है , ये आसमान और हमारे बीच के बादल भर हैं जैंसे ही बादलों के पार पंहुचेंगे वैसे ही हमारा उस परमसत्‍ता से सामना हो जायेगा

नास्ति बुद्धि अयुक्तस्य न च अयुक्तस्य भावना।
न च अभावयतः शान्ति अशान्तस्य कुतः सुखम्।। ६६।।


श्री कृष्‍ण कहते हैं जो अपने अन्तःकरण से अयुक्‍त है, यानी जो अपने आप से दूर है वो अपनी आत्‍मा से कैंसे जुड सकता है? और जो अपने आप से जुडा नही है उसकी भावनायें झूठी हैं , और ऐसा पुरूष अशांत रहता है उसे सुख नही मिल सकता  जो अपने आप से दूर है. अपने से यानी अपने शरीर से नही अपने अंतर्मन से , जिसने अपनी चेतना के दरवाजे बंद कर दिए जिसकी आत्‍मा के कोश कुंद हो गये वो प्रेम कृतज्ञता,करूणा, मैत्री जैंसी भावनाओं से दूर हो गया। उसकी बाहरी भावनायें सिर्फ दिखावा हैं झूठी है , स्‍वार्थी हैं , क्‍योंकि उसकी करूणा सिर्फ अपनो के लिये है दूसरों के लिए नही।

कृष्‍ण कहते हैं ऐसी भावनाये झूठी हैं दिखावा हैं जो पल पल बदलती हैं अपने पराये का भेद करती हैं , आदमी सपने में जी रहा है इसलिये अपने आप से दूर है जिस दिन जागरूक हो जायेगा अपने आप के करीब पंहुच जायेगा।

हम अयुक्‍त हैं क्‍योंकि हम किसी पिता है, किसी के पति है, किसी के मित्र है, किसी के शत्रु है, किसी के बेटे है, किसी के भाई है, किसी की बहन है, किसी की पत्नी है।

लेकिन खुद कौन है,इसका हमे कोई पता नहीं होता। अपने संबंध में सारी खबर दूसरों से जुड़े होने की होती है। शांति का अर्थ है, इनर हार्मनी; शांति का अर्थ है, मैं अपने भीतर तृप्त हूं, संतुष्ट हूं। अगर सब भी चला जाए, चांदत्तारे मिट जाएं, आकाश गिर जाए, पृथ्वी चली जाए, शरीर गिर जाए, मन न रहे, फिर भी मैं जो हूं, काफी हूं--मोर दैन इनफ--जरूरत से ज्यादा, काफी हूं।

जो खुद से कनेक्‍ट हो जाता है फिर वो दुखी नही होता हमेशा आनंदित होता है क्‍योंकि उसका आनंद वस्‍तुओं और रिश्‍तों का मोहताज़ नही होता I

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥६७॥

इन्द्रियाणां हि  चरतां  यत् मनः अनुविधीयते
तत्  अस्य हरति प्रज्ञाम्  वायुः नावमिव अम्भसि

जैंसे पानी में चलने वाली नाव को हवा डुबा सकती है वैंसे ही इधर उधर भटकने वाला मन हमारे बुद्धि और विवेक को खत्‍म कर देता है

श्री कृष्‍ण का ये सूत्र बहुत काम का है , उनका कहना है कि चलती नाव को तेज हवा का झौंका भी डवाडोल कर डुबा सकता है। ऐंसे ही जिसका मन जिसका चित्‍त तेज भागता है वो भी तेज तुफान और भंवर की तरह उसके मन को डवाडोल कर देता है।

मनुष्‍य का चित्‍त ही ऐसा है जो पलपल झंझावातों में फंसता चला जाता है। चित्‍त की वासनायें/ इच्‍छायें/ महत्‍वाकांक्षायें व्‍यक्ति को अस्थिर करती रहती हैं.

आप का मन जिस भी आकर्षक वस्‍तु को देखता है उसकी तरफ भागने लगता है , इसे रोकना आसान है. क्‍योंकि मन हमारा है इसे रोकने के लिए किसी बाहरी फोर्स की जरूरत नही अंदर ही इतनी ताकत है कि उसे रोक दे. मन को जब उसके माफिक चीजें नही मिलती तो फिर वो भंवर की तरह हमे अपने घेरे में ले लेता है ,  गुस्‍सा खीज हिंसक भाव मन की मुराद पूरी न होने पर ही तो आते हैं , जिसने अपने मन को कंट्रोल में कर लिया उसे सब मिल जाता है  ,

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः।। ६९।।

जिसे सब रात समझते हैं/अंधकार समझते हैं/ दुख समझते हैं, उसमें संयम न रख पाने वाले खो जाते हैं। लेकिन सबके लिए जो रात्रि है, उसमें भगवत्ता को प्राप्त हुआ संयमी पुरुष जागता है। लेकिन जिस नाशवान, क्षणभंगुर सांसारिक सुख में सब भूत प्राणी जागते हैं, तत्व को जानने वाले मुनि के लिए वह रात्रि है।

जो ज्ञानी है उसके लिए अंधेरी रात भी जागने का क्षण है , जो अपने उपर कंट्रोल रख सकता है वह अंधकार में भी दुख में भी रोशनी की किरण खोज सकता है , जो सोया हुआ है वह सब कुछ खो देता है और जो मुसीबतों में भी होश नही खोता वह सब कुछ पा लेता है ,

यहां रात का मतलब कठिनाईयों से लगाया जा सकता और जागने का मतलब ठाकर खाकर भी नही गिरना है , जो जागरूक है वो हर हाल में बेलंस्‍ड रहता है  , दिन हो या रात , अच्‍छा हो या बुरा हर हाल में आनंदित रहना ये भी इस श्‍लोक का अर्थ है , जिसकी चेतना जाग गई जिसने आत्मिक ज्ञान प्राप्‍त कर लिया वो फिर कभी निराशा उदासी की नींद में नही जाता

और आज के आदमी के क्‍या हाल हो गये हैं। वो रात में तो क्‍या दिन में भी जागना चाहता वो सोता रहता है खोया रहता है विचांरों में चिंता में , जो भी करता है उसमें उसका ध्‍यान नही होता बस उसकी अपनी ही ख्‍याली दुनिया है। जिसमें डूबा रहता है।

हम सब सम्‍मोहित हैं , तंद्रा में हैं , हम जागे हुए रहते ही नही। छात्र बैठा है क्‍लास चल रही है लेकिन वो वहां है ही नही , वो कहीं और खोया हुआ है हम खोये खोये ही रहते हैं।

इसलिये हम हर कुछ कर जाते हैं सोचते हैं ये नही करूंगा लेकिन कर देते हैं , क्‍योंकि जागरूक नही हैं कौन हिंसा करना चाहता है लेकिन हो जाती है , क्‍योंकि अलर्टनेस नही है , सडक पर चलते हैं तो तेज हार्न की आवाज भी नही जगाती , हम जो कर रहे हैं हमे ये मालूम ही नही होता कि उसका क्‍या नतीजा होगा ,

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।। ७०।।

आपूर्यमाणम् अचलप्रतिष्ठम्
समुद्रम् आपः  प्रविशन्ति  यद्वत्
तद्वत् कामाः  यं  प्रविशन्ति  सर्वे
सः शान्तिं आप्नोति न कामकामी 

जैंसे समुद्र में मिलने वाली नदियां उसे हिला नही सकती वैसे ही स्थितप्रज्ञ पुरूष को भोग विलास उंच नीच कामनायें नही हिला सकती। ये सांसारिक कर्म उसे डिस्‍टर्ब किये बगैर उसमें विलीन हो जाते हैं

समुद्र में हजारों नदियां मिलती हैं लेकिन वो इनके प्रभाव में नही आता , मर्यादा नही खोता , नदियों की तरह चलने नही लगता , उसका स्‍वभाव जरा भी नही बदलता , ऐसे ही जो व्‍यक्ति सम्‍पूर्ण भोगों को भोगते हुए भी अपना मूल स्‍वभाव नही खोता , संसार की उठापटक , प्रेम द्वेष करूणा घृणा कुछ भी हो उसे हिला नही पाते , ऐसा व्‍यक्ति मुक्ति को प्राप्‍त होता है।

स्थितप्रज्ञ व्‍यक्ति खुद को ईश्‍वर में विलीन कर देता है उसकी कोई इच्‍छा नही होती , उसका मैं खत्‍म हो जाता है। सब कुछ परमात्‍मा का हो जाता है इसलिए सुख दुख सब उसकी मान कोई कष्‍ट नही झेलता।

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दिव्य जीवन की ओर........