Type Here to Get Search Results !

अष्टांग योग, कुंडलिनी जागरण, अध्यात्म उन्नति के पहले दो पायदान

अष्टांग योग, कुंडलिनी जागरण, अध्यात्म उन्नति के पहले दो पायदान

मैं त्राटक ध्यान धारणा आदि के अभ्यास से पहले अष्टांग योग के अनुसार आगे बढ़ने की सलाह देता हूँ।

1- यम,2-नियम,3-आसन,4-प्रत्याहार,5-प्राणायाम,6-धारणा, 7-ध्यान ,8 -समाधि
त्राटक धारणा के अंतर्गत आता है जो छटवे नम्बर पर है। इससे पहले के पांच अंगों का अभ्यास कर उन्हें जीवन मे उतार कर उनके साथ सहज होना ज़रूरी है।
शुरुआत के यम नियम रूपी आचरण संहिता में मुख्यत: दस  प्रतिबंध हैं और दस नियम हैं।
इसका पालन करने वाला जीवन में हमेशा सुखी और शक्तिशाली बना रहता है। और अध्यात्म में आगे बढ़ता है।
यम
1=अहिंसा- स्वयं सहित किसी भी जीवित प्राणी को मन, वचन या कर्म से दुख या हानि नहीं पहुंचाना। जैसे हम स्वयं से प्रेम करते हैं, वैसे ही हमें दूसरों को भी प्रेम और आदर देना चाहिए।
 अहिंसा का लाभ- किसी के भी प्रति अहिंसा का भाव रखने से जहां सकारात्मक भाव के लिए आधार तैयार होता है वहीं प्रत्येक व्यक्ति ऐसे अहिंसकर व्यक्ति के प्रति भी अच्छा भाव रखने लगता है। सभी लोग आपके प्रति अच्छा भाव रखेंगे तो आपके जीवन में  कअच्छा ही होगा।

2=सत्य- मन, वचन और कर्म से सत्यनिष्ठ रहना, दिए हुए वचनों को निभाना, प्रियजनों से कोई गुप्त बात नहीं रखना।

 सत्य का लाभ- सदा सत्य बोलने से व्यक्ति की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता कायम रहती है। सत्य बोलने से व्यक्ति को आत्मिक बल प्राप्त होता है जिससे आत्मविष्वास भी बढ़ता है।

3-अस्तेय- चोरी नहीं करना। किसी भी विचार और वस्तु की चोरी नहीं करना ही अस्तेय है। चोरी उस अज्ञान का परिणाम है जिसके कारण हम यह मानने लगते हैं कि हमारे पास किसी वस्तु की कमी है या हम उसके योग्य नहीं हैं। किसी भी किमत पर दांव-पेच एवं अवैध तरीकों से स्वयं का लाभ न करें।
अस्तेय का लाभ- आपका स्वभाव सिर्फ आपका स्वभाव है। व्यक्ति जितना मेहनती और मौलीक बनेगा उतना ही उसके व्यक्तित्व में निखार आता है। इसी ईमानदारी से सभी को दिलों को ‍जीतकर आत्म संतुष्ट रहा जा सकता है। जरूरी है कि हम अपने अंदर के सौंदर्य और वैभव को जानें।

4-ब्रह्मचर्य- ब्रह्मचर्य के दो अर्थ है- ईश्वर का ध्यान और यौन ऊर्जा का संरक्षण।
सन्यासी के लिए ब्रम्हचर्य का अर्थ अलग है और संसारी के लिए अलग।
ब्रम्हचर्य जैसा कि शब्द से स्पष्ट है ब्रम्ह में विचरण यानी ब्रम्ह के समान सबके प्रति प्रेम और दया का भाव सबके प्रति करुणा और कृतज्ञता , जहां तक यौन सम्बन्ध की बात है जहां प्रेम है वहां ये योग है और जहां बिना प्रेम के सिर्फ शारिरिक उपभोग वहां वासना , प्रेम के साथ दो अनन्य प्रेमी के बीच बनाया गया सम्बन्ध समाधि का द्वार है। वरना सिर्फ ऊर्जा का क्षय । गृहस्थ और संसारी मर्यादा में रहकर इस ऊर्जा का सदुपयोग करे यही उसके लिए ब्रम्हचर्य है। जो लोग ब्रम्हचर्य को सेक्स के विपरीत बताते हैं वे ये भूल जाते हैं कि वे भी इसी प्रक्रिया से पैदा हुए हैं और इसके सम्बन्ध में जान पाए हैं। ब्रम्हचर्य एक वृहद व्रत है जिसका प्रेम रहित संबंध से विरोध है लेकिन प्रेम सहित सम्बन्ध से नही।

लगातार अश्लील चिंतन व मूवीज़ से वासना पैदा होती है जो शक्ति का क्षय करती है। ये वासना ही ब्रम्हचर्य विरोधी है और शक्ति का क्षय करती है।

5=क्षमा- यह जरूरी है कि हम दूसरों के प्रति धैर्य एवं करुणा से पेश आएं एवं उन्हें समझने की कोशिश करें। परिवार एवं बच्चों, पड़ोसी एवं सहकर्मियों के प्रति सहनशील रहें क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति परिस्‍थितिवश व्यवहार करता है।
क्षमा का लाभ- परिवार, समाज और सहकर्मियों में आपके प्रति सम्मान बढ़ेगा। लोगों को आप समझने का समय देंगे तो लोग भी आपको समझने लगेंगे।

6=धृति - स्थिरता, चरित्र की दृढ़ता एवं ताकत। जीवन में जो भी क्षेत्र हम चुनते हैं, उसमें उन्नति एवं विकास के लिए यह जरूरी है कि निरंतर कोशिश करते रहें एवं स्थिर रहें। जीवन में लक्ष्य होना जरूरी है तभी स्थिरता आती है। लक्ष्यहिन व्यक्ति जीवन खो देता है।
धृति का लाभ- चरित्र की दृढ़ता से शरीर और मन में स्थि‍रता आती है। सभी तरह से दृढ़ व्यक्ति लक्ष्य को भेदने में सक्षम रहता है। इस स्थिरता से जीवन के सभी संकटों को दूर किया जा सकता है। यही सफलता का रहस्य है।

7=दया- यह क्षमा का विस्त्रत रूप है। इसे करुणा भी कहा जाता है। जो लोग यह कहते हैं कि दया ही दुख का कारण है वे दया के अर्थ और महत्व को नहीं समझते। यह हमारे आध्यात्मिक विकास के लिए एक बहुत आवश्यक गुण है।
दया का लाभ- जिस व्यक्ति में सभी प्राणियों के प्रति दया भाव है वह स्वयं के प्रति भी दया से भरा हुआ है। इसी गुण से भगवान प्रसन्न होते हैं। यही गुण चरित्र से हमारे आस पास का माहौल अच्छा बनता है।

8=आर्जव- दूसरों को नहीं छलना ही सरलता है। अपने प्रति एवं दूसरों के प्रति ईमानदारी से पेश आना।

आजर्व का लाभ- छल और धोके से प्राप्त धन, पद या प्रतिष्ठा कुछ समय तक ही रहती है, लेकिन जब उस व्यक्ति का पतन होता है तब उसे बचाने वाला भी कोई नहीं रहता। स्वयं द्वारा अर्जित संपत्ति आदि से जीवन में संतोष और सुख की प्राप्ति होती है।

9=मिताहार- भोजन का संयम ही मिताहार है। यह जरूरी है कि हम जीने के लिए खाएं न कि खाने के लिए जिएं। सभी तरह का व्यसन त्यागकर एक स्वच्छ भोजन का चयन कर नियत समय पर खाएं। स्वस्थ रहकर लंबी उम्र जीना चाहते हैं तो मिताहार को अपनाएं। होटलों एवं ऐसे स्थानों में जहां हम नहीं जानते कि खाना किसके द्वारा या कैसे बनाया गया है, वहां न खाएं।

मिताहार  का लाभ- आज के दौर में मिताहार की बहुत जरूरत है। अच्छा आहार हमारे शरीर को स्वस्थ बनाएं रखकर ऊर्जा और स्फूति भी बरकरार रखता है। अन्न ही अमृत है और यही जहर बन सकता है।

10=शौच- आंतरिक एवं बाहरी पवित्रता और स्वच्छता। इसका अर्थ है कि हम अपने शरीर एवं उसके वातावरण को पूर्ण रूप से स्वच्छ रखें। हम मौखिक और मानसिक रूप से भी स्वच्छ रहें।

शौच का लाभ- वातावरण, शरीर और मन की स्वच्छता एवं व्यवस्था का हमारे अंतर्मन पर सात्विक प्रभाव पड़ता है। स्वच्छता सकारात्मक और दिव्यता बढ़ती है। यह जीवन को सुंदर बनाने के लिए बहुत जरूरी है। सनातन  हिन्दू धर्म  के दस नियम।

1=ह्री- पश्चात्ताप को ही ह्री कहते हैं। अपने बुरे कर्मों के प्रति पश्चाताप होना जरूरी है। यदि आपमें पश्चाताप की भावना नहीं है तो आप अपनी बुराइयों को बढ़ा रहे हैं। विनम्र रहना एवं अपने द्वारा की गई भूल एवं अनुपयुक्त व्यवहार के प्रति असहमति एवं शर्म जाहिर करना जरूरी है, इसका यह मतलब कतई नहीं की हम पश्चाताप के बोझ तले दबकर फ्रेस्ट्रेशन में चले जाएं।

ह्री का लाभ- पश्चाताप हमें अवसाद और तनाव से बचाता है तथा हममें फिर से नैतिक होने का बल पैदा करता है। मंदिर, माता-पिता या स्वयं के समक्ष खड़े होकर भूल को स्वीकारने से मन और शरीर हल्का हो जाता है।

2=संतोष- प्रभु ने हमारे निमित्त जितना भी दिया है, उसमें संतोष रखना और कृतज्ञता से जीवन जीना ही संतोष है। जो आपके पास है उसका सदुपयोग करना और जो अपके पास नहीं है, उसका शोक नहीं करना ही संतोष है। अर्थात जो है उसी से संतुष्ट और सुखी रहकर उसका आनंद लेना।

संतोष का लाभ- यदि आप दूसरों के पास जो है उसे देखर और उसके पाने की लालसा में रहेंगे तो सदा दुखी ही रहेगें बल्कि होना यह चाहिए कि हमारे पास जो है उसके होने का सुख कैसे मनाएं या उसका सदुपयोग कैसे करें यह सोचे इससे जीवन में सुख बढ़ेगा।

3=दान- आपके पास जो भी है वह ईश्वर और इस कुदरत की देन है। यदि आप यह समझते हैं कि यह तो मेरे प्रयासों से हुआ है तो आपमें घमंड का संचार होगा। आपके पास जो भी है उसमें से कुछ हिस्सा सोच समझकर दान करें। ईश्वर की देन और परिश्रम के फल के हिस्से को व्यर्थ न जाने दें। इसे आप मंदिर, धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्थाओं में दान कर सकते हैं या किसी गरीब के लिए दान करें।

दान का लाभ- दान किसे करें और दान का महत्व क्या है यह जरूर जानें। दान पुण्य करने से मन की ग्रंथियां खुलती है और मन में संतोष, सुख और संतुलन का संचार होता है। मृत्युकाल में शरीर आसानी से छुट जाता है।

4=आस्तिकता- वेदों में आस्था रखने वाले को आस्तिक कहते हैं। माता-पिता, गुरु और ईश्वर में निष्ठा एवं विश्वास रखना भी आस्तिकता है।
आस्तिकता का लाभ- आस्तिकता से मन और मस्तिष्क में जहां समारात्मकता बढ़ती हैं वहीं हमारी हर तरह की मांग की पूर्ति भी होती है। अस्तित्व या ईश्वर से जो भी मांगा जाता है वह तुरंत ही मिलता है। अस्तित्व के प्रति आस्था रखना जरूरी है।

5=ईश्वर प्रार्थना- बहुत से लोग पूजा-पाठ करते हैं, लेकिन सनातन हिन्दू धर्म में ईश्वर या देवी-देवता के लिए संध्यावंदन करने का निर्देश है। संध्यावंदन में प्रार्थना, स्तुति या ध्यान किया जाता है वह भी प्रात: या शाम को सूर्यास्त के तुरंत बाद।

ईश्वर की  प्रार्थना का लाभ- पांच या सात मिनट आंख बंद कर ईश्वर या देवी देवता का ध्यान करने से व्यक्ति ईथर माध्यम से जुड़कर उक्त शक्ति से जुड़ जाता है। पांच या सात मिनट के बाद ही प्रार्थना का वक्त शुरू होता है। फिर यह आप पर निर्भर है कि कब तक आप उक्त शक्ति का ध्यान करते हैं। इस ध्यान या प्रार्थना से सांसार की सभी समस्याओं का हल मिल जाता है।

6=सिद्धांत श्रवण- निरंतर वेद, उपनिषद या गीता का श्रवण करना। वेद का सार उपनिषद और उपनिषद का सार गीता है। मन एवं बुद्धि को पवित्र तथा समारात्मक बनाने के लिए साधु-संतों एवं ज्ञानीजनों की संगत में वेदों का अध्ययन एक शक्तिशाली माध्यम है।

सिद्धांत श्रवणका लाभ- जीस तरह शरीर के लिए पौ‍ष्टिक आहार की जरूरत होती है उसी तरह दिमाग के लिए समारात्मक बात, किताब और दृष्य की आवश्यकता होती है। आध्यात्मिक वातावरण से हमें यह सब हासिल होता है। यदि आप इसका महत्व नहीं जानते हैं तो आपके जीवन में हमेशा नकारात्मक ही होता रहता है।

7=मति- हमारे धर्मग्रंथ और धर्म गुरुओं द्वारा सिखाई गई नित्य साधना का पालन करना। एक प्रामाणिक गुरु के मार्गदर्शन से पुरुषार्थ करके अपनी इच्छा शक्ति एवं बुद्धि को आध्यात्मिक बनाना।

मति का लाभ- संसार में रहें या संन्यास में निरंतर अच्छी बातों का अनुसरण करना जरूरी है तभी जीवन को सुंदर बनाकर शांति, सुख और समृद्धि से रहा जा सकता है। इसके सबसे पहले अपनी बुद्धि को पुरुषार्थ द्वारा आध्यात्मिक बनाना जरूरी है।
8=व्रत- अतिभोजन, मांस एवं नशीली पदार्थों का सेवन नहीं करना, अवैध यौन संबंध, जुए आदि से बचकर रहना- ये सामान्यत: व्रत के लिए जरूरी है।

इसका गंभीरता से पालन चाहिए अन्यथा एक दिन सारी आध्यात्मिक या सांसारिक कमाई पानी में बह जाती है। यह बहुत जरूरी है कि हम विवाह, एक धार्मिक परंपरा के प्रति निष्ठा, शाकाहार एवं ब्रह्मचर्य जैसे व्रतों का सख्त पालन करें।

बृत का लाभ- व्रत से नैतिक बल मिलता है तो आत्मविश्वास तथा दृढ़ता बढ़ती है। जीवन में सफलता अर्जित करने के लिए व्रतवान बनना जरूरी है। व्रत से जहां शरीर स्वस्थ बना रहता है वही मन और बुद्धि भी शक्तिशाली बनते हैं।
9=जप- जब दिमाग या मन में असंख्य विचारों की भरमार होने लगती है तब जप से इस भरमार को भगाया जा सकता है। अपने किसी इष्ट का नाम या प्रभु स्मरण करना ही जप है। यही प्रार्थना भी है और यही ध्यान भी है।

जप का लाभ- हजारों विचार को भगाने के लिए मात्र एक मंत्र ही निरंतर जपने से सभी हजारों विचार धीरे-धीरे लुप्त हो जाते हैं। हम रोज स्नान करके अपने आपको स्वच्छ रखते हैं, उसी जप से मन की सफाई हो जाती है। इसे मन में झाडू लगना भी कहा जाता।

१0=तप- मन का संतुलन बनाए रखना ही तप है। व्रत जब कठीन बन जाता है तो तप का रूप धारण कर लेता है। निरंतर किसी कार्य के पीछे पड़े रहना भी तप है। निरंतर अभ्यास करना भी तप है। त्याग करना भी तप है। सभी इंद्रियों को कंट्रोल में रखकर अपने अनुसार चलापा भी तप है। उत्साह एवं प्रसन्नता से व्रत रखना, पूजा करना, पवित्र स्थलों की यात्रा करना। विलासप्रियता एवं फिजूलखर्ची न चाहकर सादगी से जीवन जीना। इंद्रियों के संतोष के लिए अपने आप को अंधाधुंध समर्पित न करना भी तप है।

तप का लाभ- जीवन में कैसी भी दुष्कर परिस्थिति आपके सामने प्रस्तुत हो, तब भी आप दिमागी संतुलन नहीं खो सकते, यदि आप तप के महत्व को समझते हैं तो। अनुशासन एवं परिपक्वता से सभी तरह की परिस्थिति पर विजय प्रा‍प्त की जा सकती है।

अंत: जो व्यक्ति यम और नियम का पालन करता है वह जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल होने की ताकत रखता है। यह प्रतिबंध और नियम सभी धर्मों का सार है।

अपरिग्रह

                                                            सांख्य योग के वर्णन के संदर्भ में  श्रीकृष्ण ने जीव की उत्पत्ति के बारे में कहा है कि प्रकृति, जीव का शरीर अपने पांच तत्वों-पृथ्वी, जल, आकाश, वायु व अग्नि और तीनों गुणों-सतो, रजो व तमो से करती है। शरीर निर्माण के बाद ब्रह्म का अंश जीव के रूप में शरीर में प्रवेश करके उसे जीवात्मा बनाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रकृति के गुण जीव निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्रकृति के गुणों के विद्यमान अनुपात के अनुसार जीव की वृत्ति का निर्धारण होता है और हमेशा ही जन्म दर जन्म यह वृत्ति मन के रूप में जीव के साथ चलती रहती है। अष्टांग योग में 8 प्रकारों यम, नियम, आसन आदि के द्वारा मन के निग्रह (Control of mind) का ध्येय लेकर साधक चलता है और मन का पूर्ण निग्रह होते ही जीव परम ब्रह्म में विलीन होकर जीवन-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है। बहरहाल आज के वर्तमान समाज में मन के निग्रह की कल्पना कठिन नजर आती है। अनियंत्रित भोग-विलास और अस्तेय व अपरिग्रह का पालन न होने से मन का निग्रह करना कठिन हो गया है। अस्तेय का अर्थ है-चोरी न करना। चोरी करने के कई निहितार्थ हो सकते हैं। अपरिग्रह का आशय है जरूरत से ज्यादा संग्रह न करना, लेकिन आज ज्यादातर मनुष्य किसी न किसी प्रकार की चोरी में लिप्त है। जीवन यापन से ज्यादा धन को यदि मनुष्य समाज की भलाई में लगा दे तो समाज में व्याप्त आर्थिक असंतुलन समाप्त हो सकता है और धन की चोरी रोकी जा सकती है। यदि ऐसा हो सके तो ही समाज में रामराज लाया जा सकता है और सभी के जीवन में खुशहाली आ सकती है।
अत्यधिक धन संग्रह की इच्छा रजोगुण में वृद्धि का मूल कारण है। जब ज्यादा धन संग्रह हो जाता है तब फिर विलासिता, मोह व भय उत्पन्न होने लगते हैं और इसके द्वारा तमो गुण की प्रधानता होने लगती है। तमो गुण से युक्त व्यक्ति जीवन की निम्न योनियो में जन्म लेता है, जबकि तमो से रजो व सतो गुण को ग्रहण कर जीव प्रभु के साक्षात्कार का अनुभव कर सकता है, परंतु व्यक्ति अस्तेय व अपरिग्रह को जीवन में न अपनाकर निम्न योनियों को प्राप्त कर रहा है। जीव का अगला जन्म उसके अंदर विद्यमान गुणों पर निर्भर करता है।

आसन प्राणायाम व धारणा के बारे में अलग से बताया जाएगा।