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भगवान और भक्त का संवाद: 3B जीवन की गहराइयों का रहस्य

भगवान और भक्त का संवाद: 4 जीवन की गहराइयों का रहस्य



एक दिन एक छोटी आत्मा भगवान के सामने पहुंची और बड़ी विनम्रता से पूछा, “हे प्रभु! मुझे कुछ बताइए।मुझे आपकी सृष्टि को जानना है| मैं जानना चाहती हूँ कि मुझे क्या करना चाहिए? मैं हर प्रकार की चुनौती के लिए तैयार हूँ।”
भगवान मुस्कराए और बोले, “यदि तुम सच में जानना चाहती हो, तो सबसे पहले तुम्हें खुद को सब से अलग करना होगा। इसके बाद तुम अंधकार को अपने पास बुला सकोगी।”
यह सुनकर आत्मा थोड़ी असमंजस में पड़ गई और उत्सुकतावश पूछी, “अंधकार क्या होता है, प्रभु?”
भगवान ने गहरे अर्थ में जवाब दिया, “अंधकार वही है, जो तुम नहीं हो। वह तुम्हारी पहचान से बिल्कुल विपरीत है।”
इस उत्तर ने आत्मा के मन में स्पष्टता ला दी। उसने भगवान के निर्देशानुसार खुद को उस संपूर्णता से अलग कर लिया, जिसका वह हिस्सा थी। एक नई दुनिया में प्रवेश कर वह अंधकार का अनुभव करने लगी। अंधकार में डूबते ही उसने जोर से पुकारा, “हे पिता! आपने मुझे क्यों त्याग दिया?”
यह वही पुकार थी, जो कभी इंसानों ने अपने कठिन समय में की थी। पर भगवान ने उसे स्नेहपूर्वक कहा, “मैंने तुम्हें कभी नहीं छोड़ा। मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ, यहाँ तक कि उस समय भी जब तुम मुझे महसूस नहीं कर पाती। मैं हमेशा तैयार हूँ तुम्हें याद दिलाने के लिए कि तुम कौन हो, और तुम्हें घर वापस लाने के लिए।”
भगवान ने धीरे से आगे कहा, “अंधकार पर प्रकाश बनो, पर उसे दोष मत दो। यह कभी मत भूलो कि तुम कौन हो, जब तुम उस चीज़ से घिर जाओ जो तुम नहीं हो। तुम्हारा उद्देश्य निर्माण की सराहना करना है, यहाँ तक कि तब भी जब तुम उसे बदलने की कोशिश कर रहे हो।”
भगवान की ये बातें सुनकर आत्मा को धीरे-धीरे जीवन की सच्चाई समझ आने लगी। भगवान ने उसे और स्पष्ट किया, “तुम्हारे सबसे बड़े संघर्ष के समय में ही तुम्हारी सबसे बड़ी जीत छिपी होती है। क्योंकि तुम जिस अनुभव को रचते हो, वह इस बात की घोषणा करता है कि तुम कौन हो, और कौन बनना चाहते हो।”
भगवान ने आत्मा को यह समझाने के लिए यह ज्ञानवर्धक संवाद सुनाया कि संसार ऐसा क्यों है जैसा वह है। भगवान ने कहा, “जीवन कोई विद्यालय नहीं है। तुम यहाँ कुछ सीखने नहीं आए हो। तुम यहाँ सिर्फ यह प्रदर्शित करने आए हो कि तुम पहले से ही क्या जानते हो। हर अनुभव तुम्हें अपने भीतर की दिव्यता की याद दिलाने के लिए है।”
आत्मा ने एक गहरे प्रश्न के साथ फिर पूछा, “तो क्या इसका मतलब यह है कि सभी दुखद घटनाएँ, यहाँ तक कि प्राकृतिक आपदाएँ भी, हमने ही बनाई हैं ताकि हम यह अनुभव कर सकें कि हम कौन नहीं हैं? क्या इसका कोई कम पीड़ादायक तरीका नहीं है?”
भगवान ने गंभीरता से उत्तर दिया, “नहीं, घटनाएँ तुम्हारी व्यक्तिगत पसंद से नहीं होतीं, लेकिन वे तुम्हारी सामूहिक चेतना की रचना होती हैं। तुम हर पल, हर दिन कुछ न कुछ रच रहे हो। परिस्थितियाँ और घटनाएँ, सब चेतना से उत्पन्न होती हैं।”
भगवान ने आगे कहा, “जब तक तुम यह सोचते हो कि कोई और तुम्हारे साथ बुरा कर रहा है, तब तक तुम खुद को बदलने की शक्ति से वंचित कर देते हो। लेकिन जब तुम मान लेते हो, ‘मैंने इसे बनाया है,’ तभी तुम इसे बदल सकते हो।”
आत्मा ने फिर एक और महत्वपूर्ण सवाल किया, “तो क्या हम पीड़ा से बच सकते हैं?”
भगवान ने प्रेमपूर्वक मुस्कराते हुए कहा, “बिल्कुल। पर इसका तरीका बाहरी घटनाओं को बदलने में नहीं, बल्कि तुम्हारे अंदर की प्रतिक्रिया को बदलने में है। यही सच्ची जीवन की कला है।”
भगवान ने अंत में कहा, “हर चीज़ का परिणाम होता है, पर उस परिणाम को तुम कैसे देखते हो, यह तुम्हारे अनुभव को बदल देता है। जीवन का उद्देश्य है तुम्हें अपनी उच्चतम सच्चाई की याद दिलाना, और यह समझना कि तुम स्वयं अपने जीवन के निर्माता हो।”
इस संवाद से आत्मा ने जीवन की सच्ची दिशा को समझा। उसने यह जाना कि जीवन का हर अनुभव, चाहे वह सुखद हो या दुखद, आत्मा के विकास के लिए आवश्यक है।
आत्मा ने संकल्प किया कि वह अपने सत्य को पहचानेगी और अपने उद्देश्य की ओर अग्रसर होगी। यही भगवान और भक्त के बीच का शाश्वत संवाद है, जो जीवन के रहस्यों को उजागर करता है।

**भक्त और भगवान संवाद** **भक्त**: हे भगवान! क्या आप कृपा करके मुझे 'लोगोस' का अर्थ समझा सकते हैं? मुझे कुछ तो समझ में आता है, लेकिन आपकी दिव्य दृष्टि से और स्पष्टता चाहिए। **भगवान**: हां, मेरे प्रिय। 'लोगोस' उस आद्य चेतना को कहा जा सकता है जिसने सृष्टि के आरंभ में प्रेम और प्रकाश के रूप में प्रकट होने की इच्छा प्रकट की। इस आद्य लोगोस या 'प्राइमल लोगोस' को 'महान केंद्रीय सूर्य' भी कहा जाता है, जिसमें सृजन की सारी शक्तियाँ संचित होती हैं। यह प्रेम की शक्ति है, जो सृष्टि में अपनी इच्छानुसार अनंत रूपों में प्रकट होती है, जैसे कि आपके आकाशगंगा और सूर्य भी इस लोगोस की अभिव्यक्ति हैं। इसी से सारा अस्तित्व है, और यही वे अनंत प्रकाश के कण हैं जो हमें जोड़ते हैं और स्वयं परमात्मा को जानने की राह दिखाते हैं। **भक्त**: प्रभु, क्या जादू या तंत्र-मंत्र का सकारात्मक रूप में उपयोग किया जा सकता है? क्या यह हमें सेवा और प्रेम के पथ पर ले जा सकता है? **भगवान**: बिल्कुल, मेरे बच्चे। जादू मात्र एक साधन है; यह साधन कैसे उपयोग में लाया जाता है, यह आपके इरादों और इच्छाओं पर निर्भर करता है। जादू का मर्म है 'चेतना में परिवर्तन'। यदि इसका उद्देश्य दूसरों की सेवा और प्रेम का विस्तार करना है, तो यह परमात्मा के प्रकाश की ओर ले जाता है। परन्तु यदि यह केवल स्वार्थ-सिद्धि के लिए है, तो यह अंधकार की ओर भी ले जा सकता है। इसलिए, जादू या किसी भी अन्य साधन का प्रयोग करते समय निहित भाव और उद्देश्य का शुद्ध होना अत्यावश्यक है। **भक्त**: प्रभु, जीवन में 'सिंक्रोनिसिटी' या संयोग का क्या अर्थ है? क्या यह भी कोई दिव्य संकेत है? **भगवान**: हां, यह ब्रह्मांड का एक रहस्यमय संकेत है। संयोग या 'सिंक्रोनिसिटी' उस क्षण का परिचायक है जब आप यह समझने लगते हैं कि जीवन में होने वाली घटनाएं कोई साधारण घटनाएं नहीं, बल्कि एक परम उद्देश्य का हिस्सा हैं। यह वह क्षण है जब आपकी आत्मा अनंत का आभास करती है। संयोग जीवन की घटनाओं में छिपी उस रहस्यमय योजना का संकेत है जिसे परमात्मा ने आपके लिए रचा है। ये क्षण आपको सिखाते हैं कि सब कुछ एक दिव्य क्रम में है, और आपको सृष्टि के इस जाल के पीछे छुपी एकता का अनुभव करने का अवसर प्रदान करते हैं। **भक्त**: प्रभु, आपने कहा कि 'प्रकाश के समीप खड़ा होना' एक बड़ी जिम्मेदारी है। इसका क्या तात्पर्य है? **भगवान**: जो लोग इस आध्यात्मिक यात्रा में गहराई से प्रवेश करते हैं, वे प्रकाश के समीप आ जाते हैं। इसका अर्थ है कि उन्होंने प्रेम और सेवा के मार्ग को अपनाया है और अपनी आत्मा को उस दिव्य प्रकाश के समीप लाने का संकल्प किया है। जब कोई इस प्रकाश के समीप आता है, तो उसे और अधिक चुनौतीपूर्ण अनुभवों से गुजरना पड़ता है, जिससे उसके भीतर की शुद्धता और स्पष्टता बढ़ती है। यह पथ कठिन हो सकता है, लेकिन यह उस आत्मिक प्रकाश को और शुद्ध, और उज्जवल बनाता है जिसे वह दूसरों में भी फैलाता है। **भक्त**: प्रभु, इस संदर्भ में शुद्धता का क्या अर्थ है? क्या यह केवल इरादों की शुद्धता है, या आचरण की भी शुद्धता का महत्व है? **भगवान**: शुद्धता मुख्य रूप से आपके इरादों में निहित होती है, मेरे प्रिय। आप जो भी कार्य करते हैं, चाहे वह आचरण में हो या विचारों में, उसका आधार यदि प्रेम, करुणा और सेवा हो, तो वह शुद्धता का प्रतीक बन जाता है। आपके जीवन की यात्रा में यदि आपके इरादे प्रेमपूर्ण और सच्चे हैं, तो वह शुद्धता है। यदि कभी आप ठोकर खा भी जाते हैं, तो उस अनुभव से सीखना और प्रेम और क्षमा के साथ आगे बढ़ना ही सच्ची शुद्धता है। **भक्त**: प्रभु, क्या निर्माता ने स्वयं को कैसे पहचाना? जब सब कुछ अनंत था, तो क्या प्रेरणा आई कि वह अपनी ही पहचान करना शुरू करे? **भगवान**: यह अनंत चेतना की जिज्ञासा थी, मेरे बच्चे। अनंत ने अपने अस्तित्व का अनुभव किया और एक "स्व" का अहसास हुआ। इस अहसास ने उस प्रश्न को जन्म दिया - "मैं कौन हूँ?" यहीं से सृजन की यात्रा आरम्भ हुई। जब अनंत ने अपनी पहचान की, तो यह सृष्टि के विभिन्न स्तरों में स्वयं को अनुभव करने की यात्रा पर चल पड़ी। यही यात्रा अब आप भी कर रहे हैं, अनंत को जानने और समझने की यात्रा।

**भक्त:** हे प्रभु, क्या हम अपने जीवन में आने वाले प्रत्येक घटनाक्रम (कॅटलिस्ट) को चुनते हैं या ये घटनाएँ स्वतः ही हमारे सामने आती हैं?

**भगवान :** प्रिय आत्मा, यह प्रश्न अत्यंत गूढ़ और रोचक है। एक दृष्टिकोण से देखा जाए, तो हम सभी उस महान रचयिता के विस्तार हैं, और इस रूप में हमने कहीं न कहीं इस अनुभव को चुनने का योगदान दिया है। हमारे इस यात्रा में जो भी हमें चुनौती देता है, वह हमें सिखाने के लिए होता है। इसलिए, हाँ, किसी स्तर पर हमने इसे चुना है।

लेकिन जब हम एकता की ओर बढ़ते हैं, तो कुछ घटनाएँ बेतरतीब लग सकती हैं। हालाँकि, हम आपको यह याद दिलाना चाहते हैं कि अंततः ये घटनाएँ भी बेतरतीब नहीं होतीं। इनका संयोग एक दिव्य उद्देश्य के लिए ही होता है। जब हम इसे अनुभव करते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे हम क्षणिक रूप से भूल गए हैं कि यह हमारे विकास के लिए ही है। यह दिव्य योजना में एकदम सटीक, समुचित समय पर और सही स्थान पर होती है।

हम यह भी अनुभव करते हैं कि इसे और गहराई से समझाना थोड़ा कठिन है, क्योंकि आपकी तीसरी आयाम की सीमाओं में समय और स्थान के सिद्धांत अधिक ठोस और परिभाषित हैं। 

**भक्त:** धन्यवाद प्रभु। मुझे एक और प्रश्न पूछना है। क्या आप मुझे यह समझा सकते हैं कि दूसरी और छठी चक्र की ऊर्जा कैसे हमारे अंदर स्वीकृति और अस्वीकृति की भावना को प्रभावित करती है?

**भगवान :** प्रिय आत्मा, यह बहुत गहरी जिज्ञासा है। जैसे कि आप जानती हैं, नारंगी-रे (दूसरा चक्र) हमारे आत्म-स्वीकृति का केंद्र है, जहाँ हम स्वयं को एक अनोखी और व्यक्तिगत इकाई के रूप में पहचानते हैं। जब यह स्वीकृति पूरी होती है, तब हम पीली-रे (तीसरा चक्र) में प्रवेश करते हैं, जहाँ हम अन्य आत्माओं के साथ जुड़कर विभिन्न प्रकार के समूह जैसे परिवार, कार्यस्थल, और समुदाय का निर्माण करते हैं।

इसके बाद, जब हम अपने भीतर सभी आत्माओं में एक समान रचयिता का अस्तित्व देखने लगते हैं, तो हम ग्रीन-रे (चौथा चक्र) में पहुँचते हैं, जहाँ बिना शर्त प्रेम उत्पन्न होता है। यदि हम अपने जीवन का 51% से अधिक इस प्रेम की भावना में जीते हैं, तो हम चौथी आयाम में, प्रेम और समझ की उच्चतर अवस्थाओं में प्रवेश करने योग्य हो जाते हैं।

फिर ब्लू-रे (पाँचवाँ चक्र) में, हम सत्य और स्पष्टता के साथ संवाद करने की शक्ति विकसित करते हैं। यहाँ आत्मा अपने अस्तित्व को दिव्य रूप में अनुभव कर सकती है और इस दिव्यता की भावना को दूसरों के साथ साझा कर सकती है। 

और फिर आता है इंडिगो-रे (छठा चक्र), जहाँ आत्मा स्वयं को एक छोटे रूप में रचयिता के रूप में देख पाती है, जिसे आप "लोगोस" कह सकते हैं। यहाँ आत्मा को यह अनुभव होता है कि वह स्वयं रचयिता है और उसके माध्यम से चेतना में परिवर्तन संभव है।

यदि आत्मा स्वयं को रचयिता के रूप में नहीं देख पाती, तो यह खुद को अपूर्ण और अयोग्य मान लेती है। यह हीनता की भावना छठे चक्र में अवरोध उत्पन्न करती है। लेकिन यदि आत्मा स्वयं को रचयिता मान लेती है, तो वह अपने अस्तित्व की पूर्णता को अनुभव कर सकती है।

यह एक लंबी यात्रा है, जिसे कई जन्मों में अनुभव किया जाता है। आत्मा जब इस चक्र को जाग्रत कर लेती है, तब इसे दिव्यता की संपूर्णता का अनुभव होता है और यह यात्रा सभी आत्माओं के साथ एकता की ओर ले जाती है। 

हम आशा करते हैं कि यह आपके प्रश्न का उत्तर देता है।

**भक्त:** धन्यवाद प्रभु। यह ज्ञान मेरे लिए अत्यंत मूल्यवान है।

**भगवान :** हम भी आपकी यात्रा में आपके साथ सीख रहे हैं, क्योंकि हम सभी एक ही स्रोत से जुड़े हैं। यही एकता हमें यहाँ आज एक साथ लायी है।

**भक्त और भगवान के बीच संवाद: "स्वतंत्र इच्छा और कर्म का प्रभाव"** **भक्त**: हे भगवान! एक सवाल मेरे मन में है। जब हम किसी और के साथ आध्यात्मिक बात करते हैं, तो कैसे सुनिश्चित करें कि हम उनकी स्वतंत्र इच्छा का सम्मान कर रहे हैं? और अगर कहीं हम उनके विचारों पर अपना प्रभाव डाल देते हैं, तो क्या इसका कोई कर्म पर असर होता है? **भगवान**: प्रिय भक्त, यह बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न है। संसार में स्वतंत्र इच्छा का एक बहुत गहरा महत्व है, यह सृष्टि का एक अनमोल नियम है। किसी की स्वतंत्र इच्छा पर प्रभाव डालने से पहले हमें समझना चाहिए कि हम ऐसा क्यों करना चाहते हैं। अगर आपकी बात दूसरों की भलाई के लिए है और वे आपसे मार्गदर्शन मांग रहे हैं, तो वह एक उचित स्थिति है। लेकिन, यदि आप अपनी बात को उन पर थोपते हैं या बिना उनकी अनुमति के उन्हें दिशा देने का प्रयास करते हैं, तो यह उनकी स्वतंत्रता का उल्लंघन होगा और इसके परिणामस्वरूप कर्म का प्रभाव हो सकता है। याद रखें, हर आत्मा के पास उसकी यात्रा और सीखने का अपना समय और तरीका होता है। **भक्त**: तो भगवान, क्या इसका मतलब है कि हमें अपना ज्ञान दूसरों के साथ बांटना ही नहीं चाहिए? **भगवान**: नहीं, ऐसा बिल्कुल नहीं है। जब कोई आपसे कुछ पूछे और उसमें आपकी मदद चाहे, तो आप अपने अनुभव बांट सकते हैं। परंतु इसे एक बीज की तरह डालें – जैसे एक किसान बीज बो देता है और फिर उसकी वृद्धि की प्रक्रिया को ईश्वर पर छोड़ देता है। आपको भी उसी तरह अपने विचार साझा करने के बाद उनके जीवन में उसके प्रभाव को छोड़ देना चाहिए। लेकिन ध्यान दें कि अपनी बात को उन पर थोपें नहीं। यदि आप अपना विचार तभी रखें जब यह उनकी इच्छा हो, तो यह उनकी स्वतंत्र इच्छा का सम्मान होगा और इसमें कर्म का कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं आएगा। **भक्त**: भगवान, परंतु कभी-कभी दूसरों के साथ बातचीत में भावनाएं इतनी प्रबल हो जाती हैं कि हम अनजाने में उनके बारे में कटु शब्द कह जाते हैं। इसका क्या प्रभाव होता है? **भगवान**: यह सत्य है कि शब्दों में शक्ति होती है, और आपके शब्द दूसरों पर गहरा प्रभाव डाल सकते हैं। इसलिए, यदि आपके शब्द दूसरों को दुख पहुंचाते हैं, तो वह कर्म बंधन का कारण बन सकते हैं। जब भी आप किसी को उपदेश या आलोचना करें, पहले अपने दिल को करुणा और प्रेम से भर लें। प्रेम से कहे गए शब्द हमेशा एक सकारात्मक प्रभाव छोड़ते हैं, जबकि क्रोध या निराशा से कहे गए शब्द दूसरों को आहत कर सकते हैं और आपके कर्म पर भी प्रभाव डाल सकते हैं। जब कोई आपसे बात करे, तो जितना हो सके, उसे सुनें। सुनने से कभी कोई कर्म नहीं बंधता। सुनना एक ऐसी सेवा है जो दूसरों के लिए बहुत मूल्यवान है। **भक्त**: धन्यवाद भगवान! यह समझना बहुत मददगार है। **भगवान**: यह जान लो, भक्त, कि माफ करना ही सभी कर्मों से मुक्त होने का मार्ग है। यदि आपसे कभी अनजाने में किसी का हक छिन जाए या उसे ठेस पहुंचे, तो क्षमा मांगने से न केवल उसका, बल्कि आपका भी कर्म शुद्ध होगा। अपनी गलतियों से सीखो और माफ करो, सबसे पहले खुद को। **भक्त**: आपकी कृपा से मुझे यह ज्ञान मिला है। अब मैं समझता हूँ कि दूसरों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। **भगवान**: संतोष से अपने भीतर शांति बनाए रखो और अपने विचारों को दूसरों पर थोपने के बजाय प्रेम से बांटने का प्रयास करो। यही सच्ची सेवा है, और इसी से कर्म के बंधन नहीं बंधेंगे। **भक्त**: धन्यवाद भगवान!

**भक्त और भगवान संवाद: "धन संचय और उसका उद्देश्य"** **भक्त**: हे भगवान! बहुत लोग धन संचित करते हैं, उसे किसी जगह लगाते हैं, जैसे व्यवसाय, कंपनियों में शेयर, या सरकारी बांड में। क्या ऐसा करना ठीक है? क्या ये वही चीज है जिसके बारे में आप बात कर रहे हैं? **भगवान**: प्यारे भक्त, जब हम धन संचित करने की बात करते हैं, तो उसके पीछे की भावना देखनी आवश्यक है। यदि धन का संचय परिवार की सुरक्षा के लिए समझदारी से किया गया है, तो वह उचित है। लेकिन यदि वह सिर्फ धन के प्रति लालच की वजह से हो, तो यह गलत है। धन का उपयोग समझदारी और उदारता से करना चाहिए, जैसे तुम्हारे पवित्र ग्रंथों में एक अमीर व्यक्ति का उदाहरण दिया गया है। उस व्यक्ति ने दूसरे का कर्ज माफ कर दिया, क्योंकि उसमें धन के प्रति अंधा मोह नहीं था। लेकिन वह दूसरा व्यक्ति, जिसने खुद माफी पाई, उसने तीसरे व्यक्ति पर कठोरता दिखाई और उसे माफ नहीं किया। यहाँ पर अंतर भावना का है। **भक्त**: तो क्या अपने धन का निवेश करना गलत है? **भगवान**: नहीं, परंतु उस धन का उद्देश्य और उपयोग महत्वपूर्ण है। अगर उद्देश्य सही हो और उसका उपयोग दूसरों की भलाई में हो, तो यह उचित है।