हिंदी फिल्मों में हिंदू परंपराओं को नकारात्मक रूप से प्रस्तुत करने पर हिंदू संगठनों को आपत्ति क्यों? – P ATUL VINOD
यूं तो फिल्म समाज का आईना कही जाती हैं …… लेकिन फिल्मों में पक्षपात और समाज की नकारात्मक छवि प्रस्तुत करने पर बवाल खड़े होते रहे हैं| पिछले कुछ दिनों में फिल्मों में हिंदू समाज की नकारात्मक छवि प्रस्तुत करने पर सोशल मीडिया में कई पोस्ट वायरल हुई| लोगों ने भी हिंदू धर्म के प्रति बॉलीवुड के पक्षपाती रवैये पर सवाल खड़े किए?

क्या वाकई बॉलीवुड हिंदू धर्म के प्रति असहिष्णु है और इसका कारण क्या है? दरअसल ये विवाद तब शुरू हुआ जब कथित रूप से अहमदाबाद में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट (आईआईएम) के एक प्रोफेसर के अध्यन के हवाले से ये कहा गया कि बॉलीवुड की फिल्में हिंदू और सिख धर्म के खिलाफ लोगों के दिमाग में धीमा ज़हर भर रही हैं। सोशल मीडिया पर वायरल होने वाली पोस्ट में ये कहा जाता है कि आईआईएम के प्रोफेसर ने बीते छह दशक की 50 बड़ी फिल्मों की कहानी को अपने अध्ययन में शामिल कर ये निष्कर्ष निकाला| रिसर्च कहती है कि बॉलीवुड एक सोची-समझी रणनीति के तहत बीते करीब 50 साल से हिद्नु विरोधी फिल्मे बना रहा है| फिल्मो में हिंदू और सिख को दकियानूसी बताया जाता है। उनकी धार्मिक परंपराएं बेतुकी होती हैं। मुसलमान हमेशा नेक और उसूलों पर चलने वाले होते हैं। जबकि ईसाई नाम वाली लड़कियां बदचलन होती हैं। हिंदुओं में कथित ऊंची जातियां ही नहीं, पिछड़ी जातियों के लिए भी रवैया नकारात्मक ही है। हालांकि 50 फिल्मों के अध्ययन से बॉलीवुड में बनने वाली हजारों फिल्मों के रुझान को साबित नहीं किया जा सकता| लेकिन लोगों ने कुछ फिल्मों में हिंदू धर्म के प्रति पक्षपाती रवैया जरूर देखा|
पोस्ट ये भी कहती है कि फिल्मों में 58 फीसदी भ्रष्ट नेताओं को ब्राह्मण दिखाया गया है। 62 फीसदी फिल्मों में बेइमान कारोबारी को वैश्य सरनेम वाला दिखाया गया है। फिल्मों में 74 फीसदी सिख किरदार मज़ाक का पात्र बनाया गया। जब किसी महिला को बदचलन दिखाने की बात आती है तो 78 फीसदी बार उनके नाम ईसाई वाले होते हैं। 84 प्रतिशत फिल्मों में मुस्लिम किरदारों को मजहब में पक्का यकीन रखने वाला, बेहद ईमानदार दिखाया गया है। यहां तक कि अगर कोई मुसलमान खलनायक हो तो वो भी उसूलों का पक्का होता है। इस पोस्ट के हवाले से आरोप ये लगाया जाता है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री किसी एजेंडे के तहत इस तरह का प्रोपेगेंडा रच रही है| हिंदी फिल्मों में अंडरवर्ल्ड के दखल से इनकार नहीं किया जा सकता| लोगों को लगता है कि अंडरवर्ल्ड के घोषित सरगना चूंकि मुस्लिम समुदाय से आते हैं इसलिए मुस्लिम समुदाय में व्याप्त कुरीतियों के प्रति कुछ दिखाने का साहस फिल्म डायरेक्टर नहीं कर पाते| वायरल पोस्ट ये भी कहती है कि बजरंगी भाईजान जैसी फिल्में भारतीय खासकर हिंदुओं को तंग सोच वाला दकियानूसी और भेदभाव करने वाला बताती हैं जबकि पाकिस्तानियों को इंसानियत, खुली सोच वाला और भेदभाव रहित दिखाया गया है|

फ़िल्में युवाओं को सीधे तौर पर प्रभावित करती हैं… फिल्मों से ही कई बार धर्म और समाज के प्रति धारणा का निर्माण होता है| इस बात में कोई बुराई नहीं कि फिल्में किसी धर्म की अच्छाइयों को उजागर करे| लेकिन यदि वो बुराइयां उजागर करने में सिर्फ एक धर्म का ही चयन करें तो फिर सवाल खड़े होना लाज़मी है| भारतीय दर्शन वसुधैव कुटुंबकम और सर्वधर्म समभाव की बात करता है| हर धर्म में कुछ न कुछ अच्छाइयां है और कुछ ना कुछ बुराई हैं| मानव द्वारा निर्मित धर्म माध्यम है परमपिता परमेश्वर से जुड़ने का| दरअसल धर्म हमें सही राह पर चलने की शिक्षा देते हैं| धर्म हमें भेदभाव रहित इंसानियत के बुनियादी उसूलों पर चलने की बात बताते हैं| लेकिन इंसानों ने धर्मों में अपने अनुसार कुछ ऐसी बातें जोड़ दी जिनका शायद ही ईश्वर के संदेश से कोई लेना देना हो| जब पीके जैसी फिल्मों में धर्मों की कुरीतियों के बारे में बताया जाता है तो लोग तालियां बजाते हैं| लेकिन यदि उनके मन में ये बात डाल दी जाए ये कुरीतियां तो सिर्फ एक ही धर्म से संबंधित है या इसमें एक ही धर्म को टारगेट किया गया है तो फिर फिल्म का संदेश छिप जाता है और लोगों के मन में पक्षपात के कारण उस फिल्म के प्रति दुर्भावना पैदा हो जाती है| फिल्मी किसी की इमेज बनाने और बिगाड़ने का बेहद मुफीद रास्ता है| भारतीय फिल्म इंडस्ट्री को ये देखना होगा कि कहीं वो किसी एजेंडे का शिकार तो नहीं हो रहे| क्योंकि भारतीयों ने फिल्मों में धर्म के नाम पर चल रहे पाखंड को उजागर करने पर हमेशा तालियां बजाई हैं| लेकिन लोगों के खुलेपन का नाजायज फायदा नहीं उठाया जाना चाहिए| हलाकि हिन्दू धर्मावलम्बियों को भी चुनिन्दा फिल्मों के हवाले से सभी फिल्मों को पक्षपात भरा बताने से परहेज करना चाहिए| इस बात में भी दो मत नहीं कि भारतीय फिल्मों के दर्शकों में पाकिस्तानी बांग्लादेशी चाइनीस और अन्य पाश्चात्य देशों के लोग भी शामिल हैं| ऐसे में फिल्मकार इन देशों के लोगों की सकारात्मक छवि पेश करके दर्शक बटोरने की कोशिश करते होंगे | वैसे भी फिल्मकार समाज सेवक नहीं है, फिल्मकार का एकमात्र उद्देश्य होता है फिल्मों के जरिए धन कमाना| कुछ ऐसे भी हैं जो व्यपार से उपर उठकर देश के बारे में सोचते हैं लेकिन वे कम ही होंगे| हर धर्म में हर जाति में अच्छे लोग भी होते हैं और बुरे लोग भी होते हैं| जैसे एक घर में चार पांच लोग हैं तो उनमें से 3 लोग अच्छे भी हो सकते हैं और अच्छे लोगों के बीच भी एक व्यक्ति खराब निकल सकता है| ऐसे में फिल्मों में पंडित को धूर्त, ठाकुर को जालिम, बनिए को सूदखोर, सरदार को मूर्ख, कॉमेडियन आदि ही दिखाया जाना इन जातियों के लोगों को रास नहीं आता| फिल्मों के किरदार जाति, धर्म और सरनेम से या तो परे कर दिये जाए या फिर उनके रोल से किसी जाति, धर्म मत, पंथ या संप्रदाय पर लांछन न लगे ऐसी कोशिश फिल्मकारों को करनी होगी| आरोप लगता है कि फिल्मों में हिंदू किरदारों की जातियां उजागर की जाती हैं| मीडिया भी फिल्मों पर पत्रकारों की छवि गलत ढंग से पेश करने का आरोप लगाता रहा है| फिल्मों में पुलिस की छवि पेश करने के तौर-तरीकों पर भी सवाल खड़े किए जाते रहे हैं| हालाकी फिल्में यदि सब की छवि को बेहतर दिखाने लग जाए तो फिर फिल्मी कैसे बने? मिर्च मसाला तो उसमें होना ही चाहिए लेकिन ये मिर्च मसाला किसी एजेंडे में मिलाकर पेश किया जाए तो लोगों को आपत्ति होना स्वाभाविक है| इस देश में लाखों मंदिर है और उन सभी मंदिरों में पुजारी बैठते हैं क्या ये सब लालची, ठग और बलात्कारी किस्म के हैं? लेकिन पुजारियों को लगता है कि फिल्मों ने पुजारी शब्द को लालच, ठगी और बलात्कारी का पर्यायवाची बना दिया है| फिल्मों में पूजा-पाठ को एक पाखंड के रूप में प्रस्तुत किया जाता है| पूजा-पाठ भारतीय संस्कृति का एक हिस्सा है| हर व्यक्ति को निर्गुण निराकार परब्रह्म की अनुभूति नहीं हो सकती| मूर्ति, प्रतीक और प्रतिमान का अवलंबन करके ही वो अपने अंदर सत्व गुण की वृद्धि करता है| यदि व्यक्ति मंदिरों में ना जाए तो क्या कचरा भंडार स्थल पर बैठे? जो भाव धर्म स्थल पर मिलता है वो भाव नाले के किनारे नहीं मिल सकता? घंटी और शंख नाद से मिलने वाले आनंद का रिप्लेसमेंट पॉप म्यूजिक नहीं हो सकता| शिव की प्रतिमा से मिलने वाली शक्ति का रिप्लेसमेंट किसी व्यक्ति का स्टेचू नही हो सकता| फिल्म जगत की कोशिश करनी पड़ेगी कि वो पहले धर्म को गहराई से समझें और फिर धर्म से जुड़ी हुई मान्यताओं को सही ढंग से प्रस्तुत करे|
