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आओ फिर से बच्चे बन जायें : कविता

आओ फिर से बच्चे बन जायें : कविता 

अतुल विनोद पाठक 

पत्रकार , लेखक , आध्यात्मिक व प्रेरणादायी वक्ता

मन में उमड़ने वाले कुछ विचारों को कविता की शक्ल देने की कोशिश की है , कृपया अहा ज़िन्दगी में प्रकाशित करने का कष्ट करें। 
......
आओ फिर से बच्चे बन जाएं
चलो फिर से बचपन में खो जाए

जान कर भी अंजान बने हम
बोध भूलकर अबोध बन जाए

ज्ञान ने भरमाया है 
बोध ने हरवाया है

आश्चर्य कहां खो गया ,
बिसमय कहाँ सो गया

क्यों चकित होना भूल गए
जो मिला उसे लील गए

जाना तो जिज्ञासा बंद हुई
आत्मा कहां कुंद हुयी

सवाल उठना बंद हुये
जवाबों से कैंसे घिर गए

कठोर खोल फेंक 
निर्मल हो जाए
आओ फिर से ......

कठिन राह छोड़ 
फिर सरल हो जायें

चुप उदास गम्भीर बनना छोड़ दे
खूब खिलखिलाएं और जीवन को नया मोड़ दे

कुतूहल बढ़ाएं
जिज्ञासा जगाएं

नदी के पत्थर हटाए 
स्रोत खोलें , झरना बहाए
आओ फिर से

सिकुड़ी आंखें फाड़ें,
विश्वास की खोखली जड़ों को उखाड़ें

बड़े होने से क्या मिला ?
जिम्मेदारियों ने जकड़ा
बड़प्पन ने मुह सिला!

ज्ञान के नशे मे झूल रहे,
चौकना दौड़ना खिलखिलाना भूल रहे!

ज्यों ज्यों आगे बढ़ते है ,
मन ही मन कुढ़ते हैं !

फिर से रोए,
जिद करें,
कड़वाहट छोड़े,
निश्छल प्रेम भरें । 

बुद्धि को ताक पर रख ,
हसे मुस्कुराएं। 

रूखे सूखे कड़वे कसैले 
मुंह से निकले शब्द विषैले

बेस्वाद बेरंग जिंदगी ,
ऊब उदासी,
बेबसी गंदगी,

नींद में पड़े ,
बेहोशी में जकड़े,

इससे पहले की दुनियादारी में खो जायें,
चादर ओढ़कर लम्बा सो जायें 
आओ फिर से बच्चे बन जायें

अतुल विनोद